सोमवार, 20 सितंबर 2010

सिर्फ स्मृतियाँ नहीं




बरसों बाद
वह भरी दोपहरी में एक दिन मेरे घर आया

इसे संभालो - ये कविताएँ हैं तुम्हारी

मैं हार गया ! !
उसने दरवाज़े के नीचे पुराने दिनों की तरह
चप्पल छोड़े

ये किताबें रख लो
यह पेन भी
अब अपने दुःख की तरह संभाले नहीं संभलता
यह सब

यह आदमी ही है
जो संजोकर सिर्फ स्मृतियाँ ही नहीं रखता !


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चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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