सोमवार, 7 सितंबर 2009

उस कच्चे रास्ते पर ...




एक शून्य सा फैला है
कुछ मटमैला.... कुछ धूसर
....
टील्हे खाई पत्थर
अटके पानी और
कटरंगनी की झाड़ियों के बीच
देसी दारु की गंध में लिपटा
उस कच्चे रास्ते पर ...

उस पार बस्ती है मगर
वह एक द्वीप है
कच्चे रास्तों से घिरा

पहाड़ टूटते हैं और हाईवे पर बिछते हैं
कच्चे रास्तों से कच्चे माल गुजरते हैं

फसल पकती है
फल पकते हैं
आदमी पकता है
मगर ताज्जुब है...
वह रास्ता नहीं पकता !!

पांच हजार साल पहले
यहां क्या था?.... नहीं पता...
लेकिन अभी एक समाज है
ऊपर -नीचे दाँयें-बाँयें से एक-सा
केंदुआ...चैकुंदा...बांदा...डकैता
...डुबाटोला...मुरीडीह...मातुडीह...

सरीखा कुछ नाम हो सकता है उसका

वह देश-प्रेम के जज़्बे में कभी नहीं डूबा
मातृभूमि के लिये शीश झुकाना
उसके मन के किसी धरातल पर नहीं
अपना देश क्या है .....उसके अवचेतन में भी नहीं

यह दुनिया एक अजायबघर है उसके लिये
तिलिस्मों से भरी

.......किन्तु हमारी भूख मिटाने और हमारा जीवन
चमकाने में उसकी अहम भूमिका है

कोई पुरातत्ववेत्ता, खगोलशास्त्री या वास्तुविद्
नहीं गुजरा कभी उस कच्चे रास्ते पर
उसकी ऐतिहासिक - भौगोलिक स्थिति में
किसी को कोई दिलचस्पी नहीं

वहां कोई महाराणाप्रताप या वीरप्पन पैदा नहीं हुआ
कोई जादूगर या मदारी तक नहीं
उस भूखण्ड के नीचे
कितना सोना... कितना हीरा... दबा है
किसी को नहीं मालूम

हो सकता है...किसी दिन... या रात ...
कोई सुषुप्त ज्वालामुखी भड़क उठे
और एकाएक सबका ध्यान
अपनी ओर आकर्षित कर ले
करवट बदलता... पेट के बल रेंगता
... घुटनों पर उठता
वह कच्चा रास्ता ...

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(उन बस्तियों को देख कर जो विकास की लम्बी छलांग की डेड लाइन हैं और जिनके मृत सेल में स्लेट-पेंसिल, पानी- बिजली -अस्पताल और सड़क नहीं।)
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चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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