मेरे बारे में
सोमवार, 2 फ़रवरी 2009
चित्र
मैं चित्र बनाती हूँ
जल की सतह पर
देखो -
कितने सुन्दर हैं!!
जितनी यह काली और चपटी नाक वाली
कुबड़ी लड़की
जितने कुम्हार के ये टूटे हुए बर्तन
जितनी समन्दर की दहकती हुई आग
भूकम्प के बीच डोलती धरती
और
उलटी हुई नाव
देखो...!
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चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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34 टिप्पणियां:
चहुँ ओर चित्र ही नज़र आते हैं. सुंदर रचना. आभार.
चित्र भी अच्छा है और नजरिया भी अच्छा है संध्या जी
- विजय
chhoti lekin achchhi gahare arthon ki kavita hai.
badhai.
बहुत अच्छा चित्र. साथ ही कविता की पंक्तियाँ भी.
Sandhya ji,
ap vastav men chitra hee bana rahee hain ...lekin koochee rang se naheen balki sundar ,sahaj shabdon se.bahut kam shabdon men jyada bhav.badhai.
Hemant Kumar
बहुत खूब काफ़ी अच्छे रहे ....दोनों ..
अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
एक सुंदर चित्र, ऎसा लगत है कोई घोडा गिरा है, ओर उस का सवार ओर घोडा तो कब के मिट्टी मे मिल गये, बस कुछ अवशेष ही बचे है ,
कविता भी खुब सुन्दर.
धन्यवाद
देख लिया-बेहतरीन शब्द-चित्र जुगलबंदी.
इसकी तारीफ के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं...
निशब्द हूँ मैं...
बहुत सुंदर...
सच...
मीत
सुंदर लिखा है आपने
अत्यन्त सुंदर कविता.
बहूत गहरी कल्पना,
चित्र भी बहोत गहरी छाप छोड़ता है......कविता से समरूप होता हुवा
sundar panktiya hain.. :)
kabhi fursat mein mera blog parhiye aur mujhe kuchh seekhne ka mauka dijiye..
mere blog ka link hai
http://merastitva.blogspot.com
जीवन के चित्र-विचित्र पर एक कवि की ही आँख ठहर सकती है क्योंकि वह मन की आँखों से चीजों को गुनता-बुनता है।उसमें कुरुपता और वीभत्सता के घनांधकार में जो जीवन का राग-संवेदन छिपा है उसे टटोलने की शक्ति प्रच्छन्न होती है। तभी तो जल की सतह पर वह जो चित्र बनाता है उसकी तुलना काली और चपटी नाक वाली कुबड़ी लड़की,कुम्हार के टूटे बर्तन,पृथ्वी के गर्भ में दहकती आग और उलटी नाव से करता है।
सचमुच संध्या गुप्ता का कवि-मन की सौंदर्य-दृष्टि अन्यतम है और उस सत्य के संधान में लीन हैं जहाँ प्रकृति और जीवन की वे विद्रुपताएँ विद्यमान है जिनसे आदमी अपने आदिमकाल से ही जुझ रहा है।
( www.sushilkumar.net पर कविता ’तुम्हारे हाथ’)
शब्द चित्र और रंगीन चित्र, दोनों लाजवाब हैं।
Bahut ghare bhav han aapki is rachna men,chitr bhi bahut payara ha...Badhai..
गूढ़ कविता के लिए साधुवाद. और साधुवाद भाई सुशील कुमार को कविता का मर्म समझाने के लिए.
Kurup vastuon me saundarya dhundhne ke anuthe prayas par kya kahun,shabd nahin mil rahe.
Ek baar phir achchi kavita prastut karne ke liye badhai.
आपकी यह कविता भी बहुत कुछ सोचने को बाध्य कर गई। इन पंक्तियों को जितनी बार पढ़ें, हर बार नई बातें दिमाग में आती हैं। वाकई कविता को इसीलिए गागर में सागर भी कहा जाता है। न जाने कितनी बातें होती हैं उसमें। चुभने, खटकने और बेहद परेशान करनेवाली बातों से उपजी बेचैनी की कोई तस्वीर बनाई जाए तो शायद इस कविता जैसी ही होगी।
बहुत ही सजीव सचित्र नज़रिया संध्या जी। आभार।
Sandhya ji
Sundar kavita.bahut kam shabdon men bahut kuchh kaha gaya hai.badhai.
Poonam
वाह संध्या जी वाह..... बधाई...
वाह संध्या जी वाह..... बधाई...
Is kavita ko kai baar padha.Har baar ek naya arth mila.Sadhuvaad.
चित्र - शब्द और रेखा - दोनों खूबसूरत
चित्र जीवंत हो उठा है……
बहुत बढ़िया. आभार.
बाकई कलम की ताकत दिखाई है आपने । एक-एक लाइन अपने-आप में अथॆ रखती है धन्यवाद
संध्या जी
बहुत सुंदर रचना। बहुत बहुत बधाई।
jeevan-darshan ke bahot hi
qareeb hai aapki ye rachnaa
ek suljhaa-hua-sa uljhaav....
badhaaaeeee......
---MUFLIS---
Sandhya ji
Bahut Gahri bat kah gayi aap
BAhut sundar
मैं चित्र बनाती हूँ
जल की सतह पर
देखो -
कितने सुन्दर हैं!!
Regards
प्रकृति ने हमें केवल प्रेम के लिए यहाँ भेजा है. इसे किसी दायरे में नहीं बाधा जा सकता है. बस इसे सही तरीके से परिभाषित करने की आवश्यकता है. ***वैलेंटाइन डे की आप सभी को बहुत-बहुत बधाइयाँ***
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'युवा' ब्लॉग पर आपकी अनुपम अभिव्यक्तियों का स्वागत है !!!
आप बढ़ियां चित्र बनाती है और विवरण भी करती है । आपका अधूरा मकान मुझे बहुत अच्छा लगा । धन्यवाद
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