मंगलवार, 13 जुलाई 2010

किवाड़





इस भारी से उँचे किवाड़ को देखती हूँ
अक्सर
इसके उँचे चौखट से उलझ कर सम्भलती हूँ
कई बार

बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!

अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!


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चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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