
इस भारी से उँचे किवाड़ को देखती हूँ
अक्सर
इसके उँचे चौखट से उलझ कर सम्भलती हूँ
कई बार
बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!
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चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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74 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर भाव लिए हुए....वक्त वक्त की बात है..
umda rachna...!!
सुन्दर भाव............लगता है ये आपके अहसास से जुड़े हैं
आदरणीया संध्याजी
नमस्कार !
बहुत ही भावपूर्ण रचना लिखी है ।
संक्षेप में कितने नपे तुले शिष्ट संतुलित शब्दों में , कितने काल खण्डों का चित्रण कर दिया आपने
!
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूं
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!
बहुत मर्म छूने वाली पंक्तियां हैं ।
(मेरे ब्लॉग पर आपने मेरी रचना आए न बाबूजी न सुनी हो तो प्लीज़ सुनने अवश्य आएं , और अपनी अनुभूति से अवगत कराएं ।
सीधा लिंक यह है … http://shabdswarrang.blogspot.com/2010/06/blog-post_21.html )
मुक्त छंद की ऐसी सशक्त रचनाएं पढ़ने की बहुत प्यास रहती है मुझे । बार बार आऊंगा आपके यहां । फॉलोअर भी बना हूं …
शस्वरं पर आपका भी हार्दिक स्वागत है , अवश्य आइएगा , और आते रहिएगा …
शुभकामनाओं सहित …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं
bahut khoob !
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!
.. बहुत सुंदर !!!
samay sab kuchh sikha deta hai....khaas kar...sambhal ke chalna....
Bahut badhiya rachna.
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!
dono hi baaten bahut acchi hain sandhya ji
ek gahari khamosh anubhooti
bahut kuchh kh gai hai yh aapki sundar rachna
आपकी यह कविता पढ़कर कुमार अंबुज की किवाड़ कविता की याद आ गई। बहरहाल आपकी कविता अलग धरातल पर है। खासकर अंतिम पंक्तियां बहुत कुछ कहती हैं। वे पिता के बारे में भी बताती हैं,वे घर की बाहर की दुनिया के बारे में भी बताती हैं और उस दुनिया में कदम रख रखने वाले के बारे में भी बताती हैं।
आपकी कविता का किवाड़ ज्यादा सशक्त है.
बधाई.
बेहतरीन रचना ... दिल छुं गई ...
yah choti si kavita apne aap me kai bhavo ko samete hue hai
एक बार पून: अद्भुत रचना
सुन्दर कविता..बधाई.
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अब ''बाल-दुनिया'' पर भी बच्चों की बातें, बच्चों के बनाये चित्र और रचनाएँ, उनके ब्लॉगों की बातें , बाल-मन को सहेजती बड़ों की रचनाएँ और भी बहुत कुछ....आपकी भी रचनाओं का स्वागत है.
किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!
-अद्भुत ...बहुत सुन्दर!!
किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!..
समय अपना काम कर रहा है .. आपके पिता अपना काम कर रहे हैं ...
ये तो दुनिया की रीत है ...
behad sundar prastuti.
सुंदर प्रस्तुति.
Bahut khoob ! Bahut hii Badhiya !!
बदलते वक्त का अच्छा खाका ।
bahar kee duniya main sambhal kar jana .....sarthak kavita...!
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!
कितने जल्दी वक्त हमें बचपन के खिलंदडे पन से जीवन की गंभीरता की और ले जाता है ।
badalta parivesh ka ek anootha chitran.....dil lubha le gaya aapka ye lekhan.......
badalta parivesh ka ek anootha chitran.....dil lubha le gaya aapka ye lekhan.......
बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!
संध्याजी !
सहज प्रभाव से भरी संपृक्त रचना।
सादेपन में जिन दरवाजों से पार जाने की ललक में एंड़ियां उठाकर जाने का प्रयास था अब वह अनुभूतियों की परिपक्वता से भर चुका है और सावधान है
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!
सादेपन में जिन दरवाजों से पार जाने की ललक में एंड़ियां उठाकर जाने का प्रयास था अब वह अनुभूतियों की परिपक्वता से भर चुका है और सावधान है
गहरे अनुभवों के गवाक्षों और जटिल दरवाजों से निकलकर एक भयावनी दुनिया की ओर आत्मविश्वास की तैयारी से जाती हुई
बधाई
संध्याजी
बहुत सुन्दर भाव।
बधाई।
उँचे किवाड़ को देखती हूँ
अक्सर
बचपन में साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
पिता देखते हैं
बाहर की दुनिया में मेरा
सम्भल कर जाना
संध्या जी!
बहुत बारीकी से बुनी गई संजीदा कविता..एक एक शब्द तराशा हुआ, अनुभव और चिन्तन की सलाइयों से एक एक घेरा तरतीब से बुना हुआ..कहीं भी शौकिया लफ्फाजी नहीं
बधाई ,
हालांकि यह शब्द भी बौना लग रहा है
कृपया निबाह लें..
sundar.. bahut sundar
bahut sundar...atiutam racna
गौरतलब पर आज की पोस्ट पढ़े ... "काम एक पेड़ की तरह होता है."
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!
In 18 shabdon me jo kaha na aapne...log 18 yugon me nahi jaan paate.
nat hun...bol abol honge kahunga to.
gangajal si kavita hai ye...mathe lagayi maine
वैरी नाईस पोएम... .. नॉव आई ऍम फ्री.... सॉरी फोर बींग डिले.... होप यू विल बी फाइन....बेहतरीन रचना ... दिल छुं गई ...
रिगार्ड्स...
...सुन्दर रचना!!!
very good
बहुत सुन्दर
अद्भुत.....वाकई !
जीवन के सत्य को खोलता हुआ किवाड।
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नाग बाबा का कारनामा।
महिला खिलाड़ियों का ही क्यों होता है लिंग परीक्षण?
आपने अपनी व्यंजना मे जो कह दिया वो अनूठा है ....क्यूँ की फ्रेम से पिता का यूँ देखना ही आपकी राहों का सहचर है ।
बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!
waqt kitna badal jaata hai aur badal bhi deta hai ,sundar bhav liye .
बहुत सुन्दर भाव...लाजवाब रचना..बधाई.
sublime !!!
bahut hi sundar ehsaso se judi aapki yah post ek khoobsurat ehsaas kara gai.
poonam
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!
गहन अनुभूति
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!
बहुत सुन्दर और संवेदनशील रचना है, बेहतरीन!
देर से आने के लिए माफ़ी, कई दिनों से टूर पर था!
बहुत गहराई लिए हुए भावपूर्ण कविता.... आपने निःशब्द कर दिया....
स्मृति मे खो गया ।
प्रशंसनीय ।
पिताजी को इससे बढ़कर और क्या चाहिए?
उनकी तृप्त आत्मा आशीषों की बौछार करती रहेगी.
कम शब्दों में बड़ी बात - आभार
Hi...
Sundar bhav...
Kavita chhoti par bhavpurn lagi..
Deepak
बहुत ही सुन्दर भाव ...बहुत बढ़िया.
एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!
अद्भुत रचना, बहुत सुन्दर भाव।
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!
...सुन्दर कविता |
bahut badhiyaa !
अद्भूत सुन्दर रचना लिखा है आपने ! उम्दा प्रस्तुती!
बेहतरीन रचना ||
लाजवाब !!!
kam hi shabdon me bahut kuchh kahti hai aapki ye kavita.
एक साधारण से विषय पर कविता लिख कर आपने मनुष्य के जीवन की पूरी दार्शनिकता को व्यक्त कर दिया कमाल का काव्य कमाल का दर्शन, प्रस्तुत पंक्तिया दिल को छु गई :
बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!
.........
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
..बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ..
..कम शब्दों में नारी के जीवन की सहज अभिव्यक्ति.
बेहतरीन कविता में शुमार कर लीजिए इसे. बधाई.
..बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ..
..कम शब्दों में नारी के जीवन की सहज अभिव्यक्ति.
बेहतरीन कविता में शुमार कर लीजिए इसे. बधाई.
..बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ..
..कम शब्दों में नारी के जीवन की सहज अभिव्यक्ति.
बेहतरीन कविता में शुमार कर लीजिए इसे. बधाई.
'और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!'
- सुन्दर.
संध्या जी,
bas itna hi shaandaar, shaandaar , shaandaar.
अरे! आपने कुछ नया नहीं लिखा अभी? मुझे आपकी नई पोस्ट का इंतज़ार है...
badhai.... achhi rachana ke liye...
very nice sandhyaji
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,--;_/*******HAPPY INDEPENDENCE*_/*****.|*,/
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स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप एवं आपके परिवार का हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ !
bemisal.wah .
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूं
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!
बहुत सुन्दर लिखती हो लड़की तुम!
वो पिता का भयभीत मन था,जो अपनी बेटी को बुरी नजरों से बचना चाहता था.उसके घर के दरवाजे बड़े बड़े रख दिए थे....पर आज वो जानते है बेटी सब सीख चुकी है. है न ?
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