मंगलवार, 8 जून 2010

नेहरू विहार






कहा जाता है कि दिल्ली मे वह एक

बसाई हुई जगह थी

उस बसाई हुई जगह में कुछ बूढे बचे थे

जिनके पास विभाजन की स्मृतियाँ थीं

बहुत भाग - दौड़ कर जिन्दगी बसर कर लेने के लायक

सवा कट्ठे की ज़मीन हासिल करने की यादें थीं



वहाँ कुछ भयाक्रांत कर देने वाले विवरण थे

जीवन के लिये संघर्ष और आदमी के प्रति

आस्था - अनास्था के किस्से थे


उस सवा कटठे की जमीन पर बसाई गई जिन्दगी में आंगन नहीं थे

गलियाँ थीं...अंतहीन भागमभाग और काम में लगे स्त्री - पुरुष

321 नम्बर की बस पकड़ कर उस रूट के कामगारों को काम के अड्डे तक पहुँचना होता था


वहाँ सपने थे

थोडी धूप और हवा थी जो धुएँ और शोर में

लिपट गई थी



औरतों के लिये इतवार था...पर्व थे

वे उन्हीं दैत्य-सी दिखतीं रेड -ब्लू लाईन बसों में

रकाबगंज गुरुद्वारा चांदनी चौक के मंदिर या फिर लाल किले

जैसी ऐतिहासिक जगहों पर कभी - कभार जाती थीं


कहा जा सकता है कि वहाँ ईश्वर था!

जे अलसुबह उठ पाते थे-घंटिया बजाते थे



दो मकानों के बीच चौड़ी गलियाँ थीं

वहाँ गर्मी और उमस भरी रातों में औरतें और जवान लडकियाँ

बेतरतीबी से सो जाती थीं

गलियों में अलगनी थी जहाँ औरतों मर्दां बच्चों के कपडे

सूखते रहते थे

जिन्दगी की उमस के बीच देर रात तक

नई-पुरानी फिल्मों के गीत बजते थे

उन्हीं गीतों से जवान दिलों में

उस ठहरी हुई जगह में प्यार के जज़्बे उठते थे

कोई सिहरन वाला दृश्य आँखों के सामने फिरता था



उस बसाई हुई जगह पर बसे हुए लोगों ने

किरायेदार रख लिये थे -ये किरायेदार

दिल्ली की आधी आबादी थे

उन्हें महीने के आखि़री दिनों का इन्तज़ार रहता था



वह दिल्ली का बसाया हुआ इलाका था

दिल्ली पूरी तरह बाजार में बदल गई थी

ग़ौरतलब है कि फिर भी उस इलाके में

हाट लगती थी !


आस्था की बेलें मर रहीं थीं

लेकिन वहाँ हाट की संस्कृति बची थी

कुछ चीजें अनायास ओर खामोशी से

हमारे साथ चलती हैं ऐसे ही...जैसे...

दिल्ली में हाट



दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के

बचे होने की गारंटी है!



उसमें पुराने लोग बचे थे

वहाँ पुरानी स्मृतियाँ थीं...

जहाँ विश्वासघात का अंधेरा था

उनके भीतर अपनी ही मिट्टी से उखड जाने

की आह थी

जो कभी -कभी उभरती थी



वे अक्सर गलियों में अकेले

हुक्का गुड़गुड़ाते कहीं भी आंखें स्थिर किये

बैठे पाये जा सकते थे



कुल मिला कर दिल्ली का वह इलाका था

अपनी बेलौस और रुटीनी दिनचर्या में व्यस्त

जिजीविषा के एक अनजाने स्वाद से भरा हुआ


जिजीविषा - जो उखड गई अपनी मिट्टी से

या जो पेशावर एक्सप्रेस से आकर

दिल्ली की आबोहवा में घुल गई



-लेकिन अब कहना चाहिये कि

इस महादेश के कई हिस्से

नेहरू विहार में तब्दील हो रहे हैं!

.........................................................
चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
.............................................................................

63 टिप्‍पणियां:

अमिताभ मीत ने कहा…

बेहतरीन !!

vivekkumarjnu ने कहा…

बेहतरीन कविता ।
"दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के

बचे होने की गारंटी है!"
बहुत खूब पंक्ति ।
विनम्रता पूर्वक कहना चाहूँगा कि कविता बेहतरीन ढ़ंग से शुरु होती है और चलती रहती है किंतु बीच में (आस्था की बेलें मर रहीं थीं, के बाद ) थोड़ा सा बिखराव लगता है ।
माफ़ कीजिये यदि आप को बुरा लगा हो ।
पर सच में कविता संवेदना के स्तरों को छूती है ।

Smart Indian ने कहा…

जिजीविषा - जो उखड गई अपनी मिट्टी से
या जो पेशावर एक्सप्रेस से आकर
दिल्ली की आबोहवा में घुल गई


सुन्दर!
बहुत कुछ पहले ही मर चुका है
थोड़ा सा हर रोज़ मरता जाता है
जिजीविषा ही बच रही शायद
बस यही चला रही मुझको.

kshama ने कहा…

Dilne chaunkna band kar diya hai..wishwaas nahi hota ki,aisa hua hai..aapne is tarah is rachna ko pesh kiya,ki,mai uske prabhav se nikal nahi paa rahi hun.

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढिया रचना है। बहुत सही कहा-

दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के

बचे होने की गारंटी है!

एक गहरी संवेदना संजोय एक उम्दा रचना के लिए बधाई स्वीकारें।

संजय पाराशर ने कहा…

gazab..........

Udan Tashtari ने कहा…

अद्बुत अभिव्यक्ति!

सूर्यकान्त गुप्ता ने कहा…

विभाजन की ही त्रासदी ही तो है जिसे अभी दोनो मुल्क और खासकर हमारा मुल्क झेल रहा है। अभिव्यक्ति बहुत सुन्दर। बधाई।

M VERMA ने कहा…

पूरी रचना का वाचन क्रम एक चलचित्र के मानिन्द चलता गया, शायद इसलिए कि हम दिल्ली में रहते हैं. और फिर यकायक
दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के
बचे होने की गारंटी है!
से हम भी चौक गये, और खुद को संवेदनशील घोषित कर दिये.
सुन्दर .. अत्यंत सुन्दर
अलग सी अद्भुत रचना

mukti ने कहा…

वाह ! मैं गांधी विहार में रहती हूँ...पोस्ट का शीर्षक देखा तो देखने चली आयी... पर अचानक से इतनी सुन्दर कविता पढ़ने को मिल गयी... मैं रहती हूँ यहाँ नेहरु विहार और गांधी विहार एक जैसे ही हैं... दिल्ली के माहानगरीय माहौल में बासी से ... अद्भुत कविता !

बेनामी ने कहा…

"दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के
बचे होने की गारंटी है!"
सबसे अलग अपने तरह की एक खास रचना जिसमें महानगरीय जीवन/संस्कृति के लिए सन्देश भी निहित हैं

shikha varshney ने कहा…

बेहतरीन ...

ज्योति सिंह ने कहा…

आस्था की बेलें मर रहीं थीं

लेकिन वहाँ हाट की संस्कृति बची थी

कुछ चीजें अनायास ओर खामोशी से

हमारे साथ चलती हैं ऐसे ही...जैसे...

दिल्ली में हाट



दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के

बचे होने की गारंटी है!ek marmik satya ,aesa hona nahi chahiye par aesa hota hai ,samvedanao ko bedardi se kuchla jaata hai .kise parwaah hai ......

vishnu sah ने कहा…

उस सवा कटठे की जमीन पर बसाई गई जिन्दगी में आंगन नहीं थे

गलियाँ थीं...


कहा जा सकता है कि वहाँ ईश्वर था!

जे अलसुबह उठ पाते थे-घंटिया बजाते थे


कुछ चीजें अनायास ओर खामोशी से

हमारे साथ चलती हैं ऐसे ही...जैसे...

दिल्ली में हाट


दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के

बचे होने की गारंटी है!

mantamugdh hoon.kya itna sundar likha ja sakta hai?

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

बहुत अच्छी लगी यह कविता...

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ ने कहा…

दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के

बचे होने की गारंटी है!

एक और सशक्त कविता के लिए बधाई

पूनम श्रीवास्तव ने कहा…

दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के
बचे होने की गारंटी है! ----- सन्ध्या जी, आपकी यह कविता मन को गहराई तक छू गयी-----यथार्थ--मजबूरी और अनुभूति का अद्भुत कोलाज।

Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

सच्चाई, सच्चाई और सच्चाई के आलावा एक दिल को छू लेने वाली अद्भुत अभिव्यक्ति.

आप हार्दिक बधाई की पात्र है....
बधाई स्वीकार करें........

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

"दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के
बचे होने की गारंटी है!"
KYA BAAT HAI!
GRAD AUR PG DILLI SE HI KIYA HAI...
BAHUT ACHHA CHITRAN KIYA HAI AAPNE, 'DILWALON' KI DILLI KA!
AUR HA, AAP MUJHE SMITA PATIL SI DIKH RAHEE HAIN.... RAAT BHI ZYADA NAHIN HUI, JO MAANU KE NEEND AA RAHEE HAI....

Ria Sharma ने कहा…

yatharth ....sundar !!

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar ने कहा…

जिजीविषा - जो उखड गई अपनी मिट्टी से

या जो पेशावर एक्सप्रेस से आकर

दिल्ली की आबोहवा में घुल गई

-लेकिन अब कहना चाहिये कि

इस महादेश के कई हिस्से

नेहरू विहार में तब्दील हो रहे हैं!------------------सन्ध्या जी ,सही कहा है आपने अब तो भारत के कई हिस्से नेहरू विहार में तब्दील हो रहे हैं। सशक्त रचना।

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

अच्छी प्रस्तुति........बधाई.....

रचना दीक्षित ने कहा…

जिजीविषा - जो उखड गई अपनी मिट्टी से
या जो पेशावर एक्सप्रेस से आकर
दिल्ली की आबोहवा में घुल गई
अद्भुत,बेहतरीन, लाजवाब

अरुणेश मिश्र ने कहा…

रचना मे वर्ण्य विषय की मौलिकता है ।
प्रशंसनीय ।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

मार्णिक ... कितनी संवेदना है आपके मन में ... अनगिनत लोगों की रोज़ मर्रा की जिंदगी को हूबहू उतरा है ... विभाजन की त्रासदी को तो लोगों ने झेल लिए .. पर आज दिलों के विभाजन को स्वीकार करना आसान नही ...

mridula pradhan ने कहा…

wah .bhwnaon ka ambar .

सुशीला पुरी ने कहा…

दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के

बचे होने की गारंटी है!
........बहुत खूब !

रंजीत/ Ranjit ने कहा…

कविता में इतिहास के पर्यटन का सुख । ऐसा लगता है जैसे देश-काल-पात्र को कोमल कड़ियों में करिंदगी से पिरो दिया गया है। बेशक प्रशंसनीय और उत्कृष्ट रचना। बधाई।

आचार्य उदय ने कहा…

बहुत सुन्दर।

अंजना ने कहा…

बढिया रचना

Betuke Khyal ने कहा…

achchha lagapadhkar

Betuke Khyal ने कहा…

achchha lagapadhkar

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

किसी कथा को काव्यात्मक लहजे में कहना आपकी खासियत है. बहुत सुन्दर

hem pandey ने कहा…

अत्यंत भावपूर्ण इस कविता के लिए साधुवाद. कुछ पंक्तियों का उल्लेख करना चाहूंगा _

वहाँ सपने थे

थोडी धूप और हवा थी जो धुएँ और शोर में

लिपट गई थी
****************
दिल्ली पूरी तरह बाजार में बदल गई थी
********************
आस्था की बेलें मर रहीं थीं

लेकिन वहाँ हाट की संस्कृति बची थी
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दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के

बचे होने की गारंटी है!

Akshitaa (Pakhi) ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना..पसंद आई.

_____________________
'पाखी की दुनिया' में 'पाखी का लैपटॉप' देखने जरुर आइयेगा.

Urmi ने कहा…

बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने शानदार रचना लिखा है!

स्वाति ने कहा…

एक उम्दा रचना..

बेनामी ने कहा…

आपकी संवदेनाओं ने मन को झंकृत सा कर दिया है।
---------
क्या आप बता सकते हैं कि इंसान और साँप में कौन ज़्यादा ज़हरीला होता है?
अगर हाँ, तो फिर चले आइए रहस्य और रोमाँच से भरी एक नवीन दुनिया में आपका स्वागत है।

कडुवासच ने कहा…

... बेहतरीन!!!

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

Behtareen kavita

Dr. Ajay Shukla ने कहा…

sandhya ji,net par bahut kam samay de pata hun.par ab tak jo dekha hai usse zahir hai ki hindi blog me stariy rachnaon ki kami hai.par apne jo mashal jala kar rakhi hai use bujhne mat dijiye.apki har rachna nisabd kar deti hai,sochta hi rah jata hoon."nehru vihar" ke bare me kya kahun.kaljayi rachna.bas.
Dr. Ajay Shukla

Sulabh Jaiswal "सुलभ" ने कहा…

ये कैसी त्रासदी है. पता नहीं कब तक चलता रहेगा.
आपकी अभिव्यक्ति संपूर्ण है इस कविता में.

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

बेहतरीन अभिव्यक्ति...सशक्त कविता..वाह!

...दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के

बचे होने की गारंटी है!...

...बहुत बड़ी बात कह दी आपने! दिल्ली क्या धीरे-धीरे सभी शहरों से संवेदनाएँ यूँ ही लुप्त हो रही हैं.

प्रदीप कांत ने कहा…

दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के

बचे होने की गारंटी है!


ab yahee sahee hai

Akshitaa (Pakhi) ने कहा…

बेहतरीन रचना..सार्थक सोच.


***************************
'पाखी की दुनिया' में इस बार 'कीचड़ फेंकने वाले ज्वालामुखी' !

Avinash Chandra ने कहा…

वे अक्सर गलियों में अकेले

हुक्का गुड़गुड़ाते कहीं भी आंखें स्थिर किये

बैठे पाये जा सकते थे

mujhe isi me poori kavita ka saar mil gaya
bahut badhiya

manu ने कहा…

bas kijiye...

manu ने कहा…

samjhiye pahle delhi ko...

kumar piyush ने कहा…

बेहतरीन रचना.मेरे विचार मे दिल्ली की जितनी समझ आपमें है दिल्ली वालों मे भी नहीं.

प्रशांत भगत ने कहा…

क्या चित्र उकेरा है आपने, मुरीद हो गया यह मन /

anilpandey ने कहा…

kya gajab kaha hai

Asha Joglekar ने कहा…

दिल्ली में चौंकना आपके भीतर के संवेदना के बचे होना की गारंटी है । अपने जमीन से उखड जाने की व्यथा को साकार करती हुई कविता ।

ZEAL ने कहा…

दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के

बचे होने की गारंटी है!


Bahut sundar chitran kiya hai aapne.

राजेश उत्‍साही ने कहा…

कोई जंगली बेल ही ऐसी निर्मम संवदेनशीलता के साथ दिल्‍ली का चेहरा सामने रख सकती है। संध्‍याजी आपकी यह कविता अंदर गहरे तक छूती है। बधाई और शुभकामनाएं।

sanu shukla ने कहा…

उम्दा रचना...सुंदर अभिव्यक्ति...!!

PAWAN VIJAY ने कहा…

you reveal biscope against me. ultimate

Harshkant tripathi"Pawan" ने कहा…

शब्दों के माध्यम से बहुत ही सुन्दर चित्र खिंचा है आपने. अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा.......

Dr. Tripat Mehta ने कहा…

bahut khhob

http://sparkledaroma.blogspot.com/

KK Yadav ने कहा…

दिल्ली में चौंकना आपके भीतर की संवेदना के
बचे होने की गारंटी है!
....बड़ी प्रभावी लगी आपकी यह पंक्ति.

P.N. Subramanian ने कहा…

बहुत ही सुन्दर रचना. शब्दों का सटीक चयन. आभार.

पंकज मिश्रा ने कहा…

बहुत बढिया रचना। बधाई। प्रशंसनीय।

Dr.R.Ramkumar ने कहा…

वहाँ सपने थे

थोडी धूप और हवा थी जो धुएँ और शोर में

लिपट गई थी



औरतों के लिये इतवार था...पर्व थे

वे उन्हीं दैत्य-सी दिखतीं रेड -ब्लू लाईन बसों में




Bahut sunder bhavabhivyakti...

ek paripakvya kavita

Emily Katie ने कहा…

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