मंगलवार, 13 जुलाई 2010

किवाड़





इस भारी से उँचे किवाड़ को देखती हूँ
अक्सर
इसके उँचे चौखट से उलझ कर सम्भलती हूँ
कई बार

बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!

अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!


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चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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74 टिप्‍पणियां:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बहुत सुन्दर भाव लिए हुए....वक्त वक्त की बात है..

sanu shukla ने कहा…

umda rachna...!!

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

सुन्दर भाव............लगता है ये आपके अहसास से जुड़े हैं

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…

आदरणीया संध्याजी
नमस्कार !
बहुत ही भावपूर्ण रचना लिखी है ।
संक्षेप में कितने नपे तुले शिष्ट संतुलित शब्दों में , कितने काल खण्डों का चित्रण कर दिया आपने
!
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूं
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!

बहुत मर्म छूने वाली पंक्तियां हैं ।

(मेरे ब्लॉग पर आपने मेरी रचना आए न बाबूजी न सुनी हो तो प्लीज़ सुनने अवश्य आएं , और अपनी अनुभूति से अवगत कराएं ।
सीधा लिंक यह है … http://shabdswarrang.blogspot.com/2010/06/blog-post_21.html )
मुक्त छंद की ऐसी सशक्त रचनाएं पढ़ने की बहुत प्यास रहती है मुझे । बार बार आऊंगा आपके यहां । फॉलोअर भी बना हूं …

शस्वरं पर आपका भी हार्दिक स्वागत है , अवश्य आइएगा , और आते रहिएगा …
शुभकामनाओं सहित …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
शस्वरं

Unknown ने कहा…

bahut khoob !

पवन धीमान ने कहा…

अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!

.. बहुत सुंदर !!!

ZEAL ने कहा…

samay sab kuchh sikha deta hai....khaas kar...sambhal ke chalna....

Bahut badhiya rachna.

पारुल "पुखराज" ने कहा…

- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!

बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!

dono hi baaten bahut acchi hain sandhya ji

PAWAN VIJAY ने कहा…

ek gahari khamosh anubhooti

शोभना चौरे ने कहा…

bahut kuchh kh gai hai yh aapki sundar rachna

राजेश उत्‍साही ने कहा…

आपकी यह कविता पढ़कर कुमार अंबुज की किवाड़ कविता की याद आ गई। बहरहाल आपकी कविता अलग धरातल पर है। खासकर अंतिम पंक्तियां बहुत कुछ कहती हैं। वे पिता के बारे में भी बताती हैं,वे घर की बाहर की दुनिया के बारे में भी बताती हैं और उस दुनिया में कदम रख रखने वाले के बारे में भी बताती हैं।

राजकुमार सोनी ने कहा…

आपकी कविता का किवाड़ ज्यादा सशक्त है.
बधाई.

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

बेहतरीन रचना ... दिल छुं गई ...

vishnu sah ने कहा…

yah choti si kavita apne aap me kai bhavo ko samete hue hai

Dr. Ajay Shukla ने कहा…

एक बार पून: अद्भुत रचना

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World ने कहा…

सुन्दर कविता..बधाई.
_________________________
अब ''बाल-दुनिया'' पर भी बच्चों की बातें, बच्चों के बनाये चित्र और रचनाएँ, उनके ब्लॉगों की बातें , बाल-मन को सहेजती बड़ों की रचनाएँ और भी बहुत कुछ....आपकी भी रचनाओं का स्वागत है.

Udan Tashtari ने कहा…

किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!

-अद्भुत ...बहुत सुन्दर!!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!..

समय अपना काम कर रहा है .. आपके पिता अपना काम कर रहे हैं ...
ये तो दुनिया की रीत है ...

vandana gupta ने कहा…

behad sundar prastuti.

अनामिका की सदायें ...... ने कहा…

सुंदर प्रस्तुति.

अमिताभ मीत ने कहा…

Bahut khoob ! Bahut hii Badhiya !!

अजय कुमार ने कहा…

बदलते वक्त का अच्छा खाका ।

Ria Sharma ने कहा…

bahar kee duniya main sambhal kar jana .....sarthak kavita...!

Asha Joglekar ने कहा…

और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!
कितने जल्दी वक्त हमें बचपन के खिलंदडे पन से जीवन की गंभीरता की और ले जाता है ।

Asha Joglekar ने कहा…
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
Asha Joglekar ने कहा…
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Asha Joglekar ने कहा…
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Asha Joglekar ने कहा…
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Asha Joglekar ने कहा…
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Apanatva ने कहा…

badalta parivesh ka ek anootha chitran.....dil lubha le gaya aapka ye lekhan.......

Apanatva ने कहा…

badalta parivesh ka ek anootha chitran.....dil lubha le gaya aapka ye lekhan.......

Dr.R.Ramkumar ने कहा…

बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!

संध्याजी !
सहज प्रभाव से भरी संपृक्त रचना।



सादेपन में जिन दरवाजों से पार जाने की ललक में एंड़ियां उठाकर जाने का प्रयास था अब वह अनुभूतियों की परिपक्वता से भर चुका है और सावधान है
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!




सादेपन में जिन दरवाजों से पार जाने की ललक में एंड़ियां उठाकर जाने का प्रयास था अब वह अनुभूतियों की परिपक्वता से भर चुका है और सावधान है

गहरे अनुभवों के गवाक्षों और जटिल दरवाजों से निकलकर एक भयावनी दुनिया की ओर आत्मविश्वास की तैयारी से जाती हुई


बधाई

पंकज मिश्रा ने कहा…

संध्याजी

बहुत सुन्दर भाव।
बधाई।

kumar zahid ने कहा…

उँचे किवाड़ को देखती हूँ
अक्सर
बचपन में साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
पिता देखते हैं
बाहर की दुनिया में मेरा
सम्भल कर जाना



संध्या जी!
बहुत बारीकी से बुनी गई संजीदा कविता..एक एक शब्द तराशा हुआ, अनुभव और चिन्तन की सलाइयों से एक एक घेरा तरतीब से बुना हुआ..कहीं भी शौकिया लफ्फाजी नहीं

बधाई ,
हालांकि यह शब्द भी बौना लग रहा है
कृपया निबाह लें..

सागर ने कहा…

sundar.. bahut sundar

HBMedia ने कहा…

bahut sundar...atiutam racna

गौरतलब पर आज की पोस्ट पढ़े ... "काम एक पेड़ की तरह होता है."

Avinash Chandra ने कहा…

और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!

In 18 shabdon me jo kaha na aapne...log 18 yugon me nahi jaan paate.

nat hun...bol abol honge kahunga to.

gangajal si kavita hai ye...mathe lagayi maine

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

वैरी नाईस पोएम... .. नॉव आई ऍम फ्री.... सॉरी फोर बींग डिले.... होप यू विल बी फाइन....बेहतरीन रचना ... दिल छुं गई ...

रिगार्ड्स...

कडुवासच ने कहा…

...सुन्दर रचना!!!

s.dawange ने कहा…

very good

सुधीर राघव ने कहा…

बहुत सुन्दर

डॉ .अनुराग ने कहा…

अद्भुत.....वाकई !

Science Bloggers Association ने कहा…

जीवन के सत्य को खोलता हुआ किवाड।
................
नाग बाबा का कारनामा।
महिला खिलाड़ियों का ही क्यों होता है लिंग परीक्षण?

सुशीला पुरी ने कहा…

आपने अपनी व्यंजना मे जो कह दिया वो अनूठा है ....क्यूँ की फ्रेम से पिता का यूँ देखना ही आपकी राहों का सहचर है ।

ज्योति सिंह ने कहा…

बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!

अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!
waqt kitna badal jaata hai aur badal bhi deta hai ,sundar bhav liye .

KK Yadav ने कहा…

बहुत सुन्दर भाव...लाजवाब रचना..बधाई.

Betuke Khyal ने कहा…

sublime !!!

पूनम श्रीवास्तव ने कहा…

bahut hi sundar ehsaso se judi aapki yah post ek khoobsurat ehsaas kara gai.
poonam

प्रदीप कांत ने कहा…

अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!

गहन अनुभूति

nilesh mathur ने कहा…

और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!

बहुत सुन्दर और संवेदनशील रचना है, बेहतरीन!
देर से आने के लिए माफ़ी, कई दिनों से टूर पर था!

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

बहुत गहराई लिए हुए भावपूर्ण कविता.... आपने निःशब्द कर दिया....

अरुणेश मिश्र ने कहा…

स्मृति मे खो गया ।
प्रशंसनीय ।

बेनामी ने कहा…

पिताजी को इससे बढ़कर और क्या चाहिए?
उनकी तृप्त आत्मा आशीषों की बौछार करती रहेगी.

कम शब्दों में बड़ी बात - आभार

Deepak Shukla ने कहा…

Hi...

Sundar bhav...

Kavita chhoti par bhavpurn lagi..

Deepak

shikha varshney ने कहा…

बहुत ही सुन्दर भाव ...बहुत बढ़िया.

रचना दीक्षित ने कहा…

एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!

अद्भुत रचना, बहुत सुन्दर भाव।

Razi Shahab ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति।

विजय प्रकाश सिंह ने कहा…

अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!

...सुन्दर कविता |

बेनामी ने कहा…

bahut badhiyaa !

Urmi ने कहा…

अद्भूत सुन्दर रचना लिखा है आपने ! उम्दा प्रस्तुती!

Shayar Ashok : Assistant manager (Central Bank) ने कहा…

बेहतरीन रचना ||
लाजवाब !!!

Harshkant tripathi"Pawan" ने कहा…

kam hi shabdon me bahut kuchh kahti hai aapki ye kavita.

अभिन्न ने कहा…

एक साधारण से विषय पर कविता लिख कर आपने मनुष्य के जीवन की पूरी दार्शनिकता को व्यक्त कर दिया कमाल का काव्य कमाल का दर्शन, प्रस्तुत पंक्तिया दिल को छु गई :
बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!
.........
अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

..बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!

अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ..
..कम शब्दों में नारी के जीवन की सहज अभिव्यक्ति.
बेहतरीन कविता में शुमार कर लीजिए इसे. बधाई.

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

..बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!

अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ..
..कम शब्दों में नारी के जीवन की सहज अभिव्यक्ति.
बेहतरीन कविता में शुमार कर लीजिए इसे. बधाई.

देवेन्द्र पाण्डेय ने कहा…

..बचपन में इसकी साँकलें कहती थीं
- एड़ियाँ उठा कर मुझे छुओ तो!

अब यहाँ से झुक कर निकलती हूँ..
..कम शब्दों में नारी के जीवन की सहज अभिव्यक्ति.
बेहतरीन कविता में शुमार कर लीजिए इसे. बधाई.

hem pandey ने कहा…

'और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!'

- सुन्दर.

पंकज मिश्रा ने कहा…

संध्या जी,
bas itna hi shaandaar, shaandaar , shaandaar.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

अरे! आपने कुछ नया नहीं लिखा अभी? मुझे आपकी नई पोस्ट का इंतज़ार है...

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

badhai.... achhi rachana ke liye...

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

very nice sandhyaji

Urmi ने कहा…

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स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप एवं आपके परिवार का हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ !

mridula pradhan ने कहा…

bemisal.wah .

बेनामी ने कहा…

अब यहाँ से झुक कर निकलती हूं
और किवाड़ के ऊपर फ्रेम में जड़े पिता
बाहर की दुनिया में सम्भल कर
मेरा जाना देखते हैं!
बहुत सुन्दर लिखती हो लड़की तुम!
वो पिता का भयभीत मन था,जो अपनी बेटी को बुरी नजरों से बचना चाहता था.उसके घर के दरवाजे बड़े बड़े रख दिए थे....पर आज वो जानते है बेटी सब सीख चुकी है. है न ?