गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

जंगल में होना चाहती हूँ!


जानती हूँ मैं जंगल में होने के ख़तरों के बारे में

बीहड़ों और हिंस्र पशुओं के बीच से गुजरने की
कल्पना मात्र भी
किस क़दर ख़ौफ़नाक़ है!!

और जंगल की धधकती आग!
किसे नहीं जलाकर राख कर देती वो तो!!

जंगल में होने का मतलब है
हर पल जान हथेली पर रखना!

.....मैं ख़तरे उठाना चाहती हूँ ...
....जंगल में होने के सारे ख़तरे क्योंकि
मुझे भरोसा है जंगल के न्याय पर पूरा का पूरा
और वहाँ भरोसों की हत्या नहीं होती

आखि़रकार जंगल मेरा अपना है
सबसे पुराना साथी !


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चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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43 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

आखि़रकार जंगल मेरा अपना है
सबसे पुराना साथी !


-क्या बात है, बहुत खूभ!!

पुरुषोत्तम कुमार ने कहा…

अब तो जंगल में भी भरोसे का खून होता है।

Sushil Kumar ने कहा…

संध्या गुप्ता जी की नयी कविता आयी है - “जंगल में होना चाहती हूँ।” कवयित्री की अपने ज़मीन से जुड़ने की जिजीविषा और अदम्य साहस का भाव पंक्तियों में सुगमता से लक्ष्य किया जा सकता है। जंगल न सिर्फ़ उनके अपने निवास-स्थल का प्रतीक है बल्कि उस संघर्ष की ओर भी इंगित करता है जो आज के मनुष्य के सामने चुनौती के रूप में प्रत्यक्ष हो रहा है। जगंल यानि उस संघर्ष में होने के अपने खतरे भी हैं, कवयित्री के ही शब्दों में-
“जंगल में होने का मतलब है
हर पल जान हथेली पर रखना!

.....मैं ख़तरे उठाना चाहती हूँ ...
....जंगल में होने के सारे ख़तरे ”
पर जंगल में होना दिन-दिन अन्यायपूर्ण होती इस दुनिया में अपने अस्तित्व को बरक़रार रखने की भी परम इच्छा है जो द्वंद्व के जीवन को स्वीकारने की हमें उत्प्रेरणा से भर देता है।

Bahadur Patel ने कहा…

achchhi kavita hai.

पूनम श्रीवास्तव ने कहा…

Sandhya ji,
Ye kavita matra kavita naheen,balki prakriti,jangal ,
prithvee se apke moh,lagav,aur unase tadatmyata ka sajeev dastavej hai.badhai.
Poonam

Unknown ने कहा…

bahut khub...

मीत ने कहा…

सच ही तो कह रही हैं आप...
और वैसे भी जंगल में इस दुनिया की तरह मतलबी लोग नहीं रहते...
मीत

रंजू भाटिया ने कहा…

भाव अच्छे लगे इस कविता के ...

kumar Dheeraj ने कहा…

जंगल में होना चाहती है बढ़िया कविता लिखी है आपने । इस कविता से आपके साहसिक सोच की झलक देखने को मिलती है । लिखते रहिए शुक्रिया ।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

अच्छी रचना, आज के समाज पर, आज के हालत पे सटीक विचार
शहर से तो जंगल ही ठीक

Science Bloggers Association ने कहा…

achchhi kavita hai.

Ashok Kumar pandey ने कहा…

कितना भी ख़तरनाक हो जगह लेकिन अगर भरोसे की हत्या ना होने का विश्वास हो तो निश्चित तौर पर बेधडक जाया जा सकता है वहाँ

Dev ने कहा…

Sandhya ji
"Jangal me hona chahati hoon" sundar kavita hai aur sagar si gahrayi hai...
.....मैं ख़तरे उठाना चाहती हूँ ...
....जंगल में होने के सारे ख़तरे क्योंकि
मुझे भरोसा है जंगल के न्याय पर पूरा का पूरा
और वहाँ भरोसों की हत्या नहीं होती .

Man ke gahare bhav bahut salike se shabdon me dhale gaye hai..
Badhi

सुभाष नीरव ने कहा…

बहुत खूब संध्या जी। खतरे उठाने की चाह्त आपके साहसिक सोच को दर्शाती है। जंगल का प्रतीक लेकर आपने कविता को बेहद प्रभावकारी बना दिया है। बधाई !

अनुपम अग्रवाल ने कहा…

सुन्दर अभिव्यक्ति
सही कहा आपने --वहाँ भरोसों की हत्या नहीं होती

डा0 हेमंत कुमार ♠ Dr Hemant Kumar ने कहा…

मुझे भरोसा है जंगल के न्याय पर पूरा का पूरा
और वहाँ भरोसों की हत्या नहीं होती

आखि़रकार जंगल मेरा अपना है
सबसे पुराना साथी !

sachmuch ...sandhya ji ,
aj ham bharosa sirf ped, paudhon,janvaron par hee kar sakte hain . admee ...manushya to aj pooree tarah se apanee manavta khota ja raha hai.achchhee kavita.shubhkamnayen.
HemantKumar

बेनामी ने कहा…

जंगल तो है प्रकृति का एक प्यारा तोहफ़ा

hem pandey ने कहा…

आज के समाज में रहना जंगल में रहना ही है. और इसी साहसिक सोच के बूते यहाँ रहा जा सकता है.

daanish ने कहा…

"मुझे भरोसा है जंगल के न्याय पर
पूरा का पूरा ............."

कविता में खूबसूरत कटाक्ष ....
कटाक्ष में छिपी हुई सच्चाई ....
और एक सच्चा , निर्भीक संदेश ....

बधाई..........
---मुफलिस---

Arvind Gaurav ने कहा…

ek khoobsurat soch aur ek acchi rachna.

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ ने कहा…

.....मैं ख़तरे उठाना चाहती हूँ ...
....जंगल में होने के सारे ख़तरे क्योंकि
मुझे भरोसा है जंगल के न्याय पर पूरा का पूरा
और वहाँ भरोसों की हत्या नहीं होती

आखि़रकार जंगल मेरा अपना है
सबसे पुराना साथी !

भरोसों की हर पल हत्या वाली आदमी की इस दुनिया से बेहतर है जंगल का न्याय.


आपकी अभिव्यक्ति को सलाम

बेनामी ने कहा…

संध्‍या जी,
आपकी रचनाएं मैं पहले भी पढ़ता रहा हूं लेकिन इस बार आपकी रचना को मैं कई बार पढ़ चुका हूं। हर बार एक अलग आनंद की अनुभूति हो रही है। बधाई आपको।

बेनामी ने कहा…

Ek baar phir mantramugdh hoon.

kumar Dheeraj ने कहा…

आपकी अगली रचना का भी इंतजार किया है मैने । खैर लिखने के बाद मेर ब्लाग पर जरूर आये शुक्रिया

बेनामी ने कहा…
इस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

achhi rachna he..
padhte rahne aour aapki naari sahas ki kalpnayukt kavita..

राजीव करूणानिधि ने कहा…

बहुत खूबसूरत कविता. उतना ही अहम् मुद्दा भी. भाव के जरिये एक गंभीर सन्देश. आभार आप को.

बेनामी ने कहा…

junglr nahi to ham bhi nahi
wah
sunder rachnaa
bahoot khoob
aur tamaam wo jo likh ya kah nahi paa rahaa
abhivyakti ko shabdon ki kami hai
dhany waad

http://birdswatchinggroupratlam.blogspot.com
http://mpbirds.blogspot.com

visit karnaa naa bhoolen

Satish Chandra Satyarthi ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना !!
किन शब्दों में प्रशंसा करुँ

बेनामी ने कहा…

Is kavita ko padh kar laga ki jis baat ko main kehna chahta tha par shabd nahin mil rahe the aapne kah diya.

अखिलेश चंद्र ने कहा…

jangal ki kavita achchhi lagi.

अभिन्न ने कहा…

संध्या जी जब आपकी कविता पढ़ताजा रहा था तो लगता था मै भी किसी गहन जंगल से गुजर रहा हूँ भय ओर जंगल के रहस्य मेरे साथ साथ चल रहे थे परन्तु जब ये पंक्तिया पढ़ी की

मुझे भरोसा है जंगल के न्याय पर पूरा का पूरा
और वहाँ भरोसों की हत्या नहीं होती
तो समझ में आया की आप क्या कहना चाहती है ,आज हम जिस सभी कहे जाने वाले समाज के गगनचुम्बी इमारतों में मेट्रो टाइप जीवन जी रहें है वहां न्याय का तो नामों निशान नहीं औरों के साथ न्याय की बात तो दूर इस समाज में तो हम अपने साथ भी कहाँ न्याय कर रहे है ,पर्यावरण को उजाड़ रहे है,प्रदुषण फैला रहे है जंगल काट कर संवेदना विहीन सा जीवन जी रहे है
नमन स्वीकार करें

प्रदीप मानोरिया ने कहा…

अत्यंत रोचक गंभीर भावो को वहन करती सुन्दर शब्द रचना ... वाह वाह

kumar Dheeraj ने कहा…

अगले पोस्‍ट का इंतजार किया । बहस महिलाओं का था इसलिए मैने सोचा संध्या जी को शामिल कर लू । इसलिए मेरा नया पोस्ट जरूर पढ़े और अपना विचार रखे । शुक्रिया

प्रदीप कांत ने कहा…

.....मैं ख़तरे उठाना चाहती हूँ ...
....जंगल में होने के सारे ख़तरे क्योंकि
मुझे भरोसा है जंगल के न्याय पर पूरा का पूरा
और वहाँ भरोसों की हत्या नहीं होती

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

अच्छी रचना, आज के समाज पर|
बहुत ही सुन्दर भावपूर्ण रचना!
आप का ब्लाग बहुत अच्छा लगा।
मैं अपने तीनों ब्लाग पर हर रविवार को
ग़ज़ल,गीत डालता हूँ,जरूर देखें।मुझे पूरा यकीन
है कि आप को ये पसंद आयेंगे।

प्रकाश पाखी ने कहा…

संध्या जी,
प्रकृति के निकट सजीव अहसासों को समेटे अंतर्निहित विडम्बनाओं को चित्रित करती सशक्त रचना....बधाई..!

"पाखी"

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

मन पर प्रभाव छोड़ती सुंदर सर्जना!

रावेंद्रकुमार रवि ने कहा…

जंगल में एक ऐसी अंतर्शक्ति होती है,
जिसका सामना करना
सबके बस की बात नहीं!

M Verma ने कहा…

पशु के पास उनकी अपनी पशुता है
पर मनुष्य के पास की मनजता कही खो गई है
धीर गम्भीर रचना के लिये बधाई

Rajesh Sharma ने कहा…

iss shahar ke halaat hi aise hain
yahan logo ke andaaj hi aise hain
dhokhadhadi bhrashtachar,
katle-aam, blatkaar
jungle se jyaada yahan khatro ke andeshe hain,
kash chun-ne ka hota vikalp
hum bhi chunte
manas abhyarany me bhay-hin vicharte

Dudhwa Live ने कहा…

क्या बात कही है आप ने, बहुत उम्दा

SAHYDREE ने कहा…

JANGAL YANE KE HAMARA MAN