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शुक्रवार, 17 जुलाई 2009
तय तो यह था...
तय तो यह था कि
आदमी काम पर जाता
और लौट आता सकुशल
तय तो यह था कि
पिछवाड़े में इसी साल फलने लगता अमरूद
तय था कि इसी महीने आती
छोटी बहन की चिट्ठी गाँव से
और
इसी बरसात के पहले बन कर
तैयार हो जाता
गाँव की नदी पर पुल
अलीगढ़ के डॉक्टर बचा ही लेते
गाँव के किसुन चाचा की आँख- तय था
तय तो यह भी था कि
एक दिन सारे बच्चे जा सकेंगे स्कूल...
हमारी दुनिया में जो चीजें तय थीं
वे समय के दुःख में शामिल हो एक
अंतहीन...अतृप्त यात्राओं पर चली गयीं
लेकिन-
नहीं था तय ईश्वर और जाति को लेकर
मनुष्य के बीच युद्ध!
ज़मीन पर बैठते ही चिपक जायेंगे पर
और मारी जायेंगी हम हिंसक वक़्त के हाथों
चिड़ियों ने तो स्वप्न में भी
नहीं किया था तय!
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चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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58 टिप्पणियां:
ज़मीन पर बैठते ही चिपक जायेंगे पर
और मारी जायेंगी हम हिंसक वक़्त के हाथों
चिड़ियों ने तो स्वप्न में भी
नहीं किया था तय!
बहुत सुन्दर।
आभार/शुभमगल
मुम्बई टाईगर
हे प्रभु यह तेरापन्थ
आपने जो लिखा है ...उसकी जितनी भी तारीफ की जाये वो कम है
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
nice poem with realism
http://www.ashokvichar.blogspot.com
बहुत अच्छी कविता।
अद्भुत!!
bahut khub
तय तो यह था कि
कि आप प्रेम गीत लिखती
पर लिखना पड रहा है व्यथा.
बहुत खूबसूरती से ज़िन्दगी की व्यथा को कहा है.
bahut hi gahari baat ko bahut hi sarata se dil me uatar diya aapane .........mantr-mugdh hu...
ज़मीन पर बैठते ही चिपक जायेंगे पर
और मारी जायेंगी हम हिंसक वक़्त के हाथों
चिड़ियों ने तो स्वप्न में भी
नहीं किया था तय!
लाजवाब गहरी रचना लिखी हैं आपने........सच मुच जातिवाद का ज़हर, धर्म का ज़हर आज सब को लील रहा है........
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति....
दिल को छु गयी....
मीत
संध्या जी,
तय तो बहुत कुछ रहता है पर जिन्दगी में अक्सर होता वही है जो किसी ने तय नही किया होता।
एक बहुत ही सधी हुई कविता।
बधाईयाँ
सादर,
मुकेश कुमार तिवारी
तय तो यह भी था की जिन्ना बनेगें प्रधान मंत्री, हिंदुस्तान का बटवारा न होने देगें, पर ................
यही पर..........आज भी स्वतंत्रता मिलने के बावन वर्ष बाद भी बदस्तूर जारी है.........खामियाजा सीधी- सादी जनता
को भोगना पड़ रहा है...........
अद्भुत विचार एक नए अंदाज़ में पेश किया.
हार्दिक आभार , यह तो तय ही था और हमने निभाया, बावन वर्ष में नहीं, तुरत-फुरत.
हमारी दुनिया में जो चीजें तय थीं
वे समय के दुःख में शामिल हो एक
अंतहीन...अतृप्त यात्राओं पर चली गयीं
Kya likha hai aapne.Kaphi der tak sochta raha.
हमारी दुनिया में जो चीजें तय थीं
वे समय के दुःख में शामिल हो एक
अंतहीन...अतृप्त यात्राओं पर चली गयीं
Kya likha hai aapne.Kaphi der tak sochta raha.
'ज़मीन पर बैठते ही चिपक जायेंगे पर
और मारी जायेंगी हम हिंसक वक़्त के हाथों
चिड़ियों ने तो स्वप्न में भी
नहीं किया था तय!'
- यह तो व्यवस्था ने तय कर दिया.
न जाने ऐसी कितनी ऐसी बातें हैं जो तय नहीं थीं फिर भी हो रही हैं..
सामायिक रचना और प्रस्तुति भी अच्छी है.
हमारी दुनिया में जो चीजें तय थीं
वे समय के दुःख में शामिल हो एक
अंतहीन...अतृप्त यात्राओं पर चली गयीं
Sandhya ji,
aj ke halat ko bayan karatee ek gambheer rachana...sochane par vivash karatee hai.
Poonam
ज़मीन पर बैठते ही चिपक जायेंगे पर
और मारी जायेंगी हम हिंसक वक़्त के हाथों
चिड़ियों ने तो स्वप्न में भी
नहीं किया था तय!
संध्या जी ,
हर बार की तरह फिर एक सशक्त रचना पढ़ने का सुअवसर ....प्रकृति ..देश समाज के प्रति आपकी चिंता को प्रर्दशित करने वाली kavita.
हेमंत कुमार
Apki kavitayen kafi samay se pad raha hoon.Kripya apna pura parichay den.
विडम्बनाओं पर आपकी गहरी नज़र और काव्यमयी प्रस्तुति अच्छी लगी.
हरिशंकर राढी
iyatta.blogspot.com
sunder
कितनी बातें तय न होने पर भी हो जाती है,और जो तय होता है उसके लिए अंतहीन इन्तजार....इस अंतर्विरोध को आपने बड़ी सुन्दरता से अपनी कविता में कह दिया है. बहुत अच्छी कविता लगी..
प्रकाश पाखी
"तय तो यह था कि
जीवन जियेंगे,
तय यह नहीं था कि
जीवन काटेंगे।"
खैर..
आपकी रचना बहुत अच्छी लगी, मानवीय स्तर पर वैचारिक प्रस्तुति।
तय तो बहुत कुछ था ..........पर , इस पर का क्या करें ? संध्या जी !बेहद अच्छा लगा आपको पढना ,मेरा ब्लॉग भी देखिएगा .
संवेदनशील भाव बहुत खूब!
bahut sahee kahaa aapane.
dhnywad sandhyaji blog par aane ke liye .
तय तो यह भी था कि
एक दिन सारे बच्चे जा सकेंगे स्कूल...
bhut achhi prstuti .ak achha prshn ?
arbo rupye khrch hone ke bad bhi har gli me apdh bchhe mil javege .
क्या कहूँ...... अदबुध....!!!
www.nayikalam.blogspot.com
तय तो यह है कि
मनुष्य सत्ता का चहेता है
मुठठी बांधकर ही
रखना चाहता है
सब कुछ पा लेना चाहता है
केवल अपने लिए
केवल अपने लिए।
बहुत अच्छा लिखती हैं आप..
पत्र-पत्रिकाओं में भी पढ़ते रहता हूँ आपको
Jin chijon ko hona chaiye tha ,nahin huin.Jinhe nahin hona chaiye tha ,ho gayin. Samay ka abhishap kahen ya kuch aur..
सही है सोचा क्या था और देख क्या रहे हैं| हो सकता है इस देखने के लिए जो मजबूर हुए है ,कहीं हम खुद ही तो जिम्मेदार नहीं है "किससे कहें कि छत की मुडेरों से गिर गए , हमने ही खुद पतंग उडाई थी शौकिया "
ज़मीन पर बैठते ही चिपक जायेंगे पर
और मारी जायेंगी हम हिंसक वक़्त के हाथों
चिड़ियों ने तो स्वप्न में भी
नहीं किया था तय!
स्व दुश्यन्त कुमार जी का शेर याद आ गया
कहाँ तो तय था चरागाँ हरेक घर के लिये
कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिये
sunder abhivyakti
"तय तो यह था कि
जीवन जियेंगे,
तय यह नहीं था कि
जीवन काटेंगे।"
इस सुन्दर रचना के लिये बहुत बहुत धन्यवाद...
तय था कि इसी महीने आती
छोटी बहन की चिट्ठी गाँव से....
abhi to rakhi ka intjaar hai....
बिल्कुल सही आपने लिखा है । संध्या जी इस कविता की जितनी तारीफ की जाएं उतनी ही कम है । शु्क्रिया
sundar abhivayakti hai...........
zindgee ki haqeeqat byaan kartee kavita....
पंख बिखरे हैं सभी और लहू बिखरा है
इस ज़मीं पर नहीं महफूज़ परिंदे शायद।
Dr. jagmohan Rai
Penting aur kavita, dono men gahree baaten hain.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
तय तो आपने भी नहीं किया होगा की ये रचना लिखने से पूर्व,
की आप इतनी सुन्दर रचना करेंगी शब्दों और भावनाओं की ...!
... बेहद प्रभावशाली व प्रसंशनीय अभिव्यक्ति !!
बहुत सुन्दर
Happy Friendship day.....!! !!!!
पाखी के ब्लॉग पर इस बार देखें महाकालेश्वर, उज्जैन में पाखी !!
ज़मीन पर बैठते ही चिपक जायेंगे पर
और मारी जायेंगी हम हिंसक वक़्त के हाथों
चिड़ियों ने तो स्वप्न में भी
नहीं किया था तय!
बहुत ही गहरी बात ।
हमे आने में देर हो गयी।
कविता का शिल्प बेहद गठा हुआ है लेकिन लगा कि अंत थोडा जल्दीबाज़ी में कर दिया गया।
bahut hi acchi kavita . purane dino ki yaad dilati hui .. wah ji kya kahun .. naman aapko
regards
vijay
please read my new poem " झील" on www.poemsofvijay.blogspot.com
thank u so much much mam... mere blog per aane aur praise krne ke liye.. aapki ye poem bahut pasand aayi,such kaha aapne ye sb toh kabhi tay nhi tha...
लेकिन-
नहीं था तय ईश्वर और जाति को लेकर
मनुष्य के बीच युद्ध!
ज़मीन पर बैठते ही चिपक जायेंगे पर
और मारी जायेंगी हम हिंसक वक़्त के हाथों
चिड़ियों ने तो स्वप्न में भी
नहीं किया था तय!
बहुत खूब .....शानदार रचना ......!!
मैथलीशरण गुप्ता पुरुस्कार के लिए बधाई .....!!
लेकिन-
नहीं था तय ईश्वर और जाति को लेकर
मनुष्य के बीच युद्ध!
behtrin .ati uttam .sach ,kya kahoon? bahut hi achhi lagi ye kavita .
सुंदर अति सुंदर आपकी सभी कवितायें मन को छू गई ...
धन्यवाद
VISAW SHIMBORSKA KI KAVITA 'BEETATTI SADI MEIN' YAD AA GAI
लेकिन-
नहीं था तय ईश्वर और जाति को लेकर
मनुष्य के बीच युद्ध!
ज़मीन पर बैठते ही चिपक जायेंगे पर
और मारी जायेंगी हम हिंसक वक़्त के हाथों
चिड़ियों ने तो स्वप्न में भी
नहीं किया था तय!
आपके चिंतन का जवाब नहीं ..लाजवाब
आप जैसी लेखिका का ब्लॉग तक आना यक़ीनन शोभाग्य की बात है .
आपकी कई रचनाएँ पढ़ीं....सब ही इतनी लाजवाब हैं की नि;शब्द हो गयी हूँ...
जाति व्यवस्था का दर्द बहुत खूबसूरती से उकेरा है....सुन्दर अभिव्यक्ति
एक नए अंदाज़ में पेश किया.
बहुत खूब .....शानदार रचना ...
ज़मीन पर बैठते ही चिपक जायेंगे पर
और मारी जायेंगी हम हिंसक वक़्त के हाथों
चिड़ियों ने तो स्वप्न में भी
नहीं किया था तय!
जो तय था वो धरा का धरा रह गया....नियति को कुछ और ही सूझ गया
बहुत ही सुन्दर।
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