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सोमवार, 11 जनवरी 2010
अधूरा मकान: दो
कोई मकान अधूरा क्यों रह जाता है !!
सलीब की तरह टँगा है
यह सवाल मेरे मन में
अधूरे मकान को देख कर
मुझे पिता की याद आती है
उनकी अधूरी इच्छायें और कलाकृतियाँ
याद आती हैं
देख कर कोई अधूरा मकान
उम्र के आखिरी पड़ाव में
एक स्त्री के आँचल में
एक बेबस आदमी का
बच्चे की तरह फफकना याद आता है
अतीत में आधी-आधी रात को जग कर
कुछ हिसाब-किताब करते
कुछ लिखते
एक ईमानदार आदमी का चेहरा सन्नाटे में
पीछा करता है
एक अकेले और थके हुए आदमी की पदचाप
सुनाई देती है सपने में
कोई मकान अधूरा क्यों रह जाता है!!
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चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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51 टिप्पणियां:
आपकी कवितायें पढ़ता रहा हूँ। यह कविता भी संवेदना को पक्ड़ने और उसे व्यक्त करने के लिहाज से बहुत अच्छी है - अन्य कविआओं की तरह।
देख कर कोई अधूरा मकान
उम्र के आखिरी पड़ाव में
एक स्त्री के आँचल में
एक बेबस आदमी का
बच्चे की तरह फफकना याद आता है ...
यह पंक्तियाँ दिल को छू गयीं.....
एक ईमानदार आदमी का चेहरा सन्नाटे में
पीछा करता है
एक अकेले और थके हुए आदमी की पदचाप
सुनाई देती है सपने में
सच्चाई और ईमानदारी के दर्द को उजागर करती सच्ची रचना. कवियत्री को बधाई. कहते हैं सच के राश्ते पर चलने वालों की हार नहीं होती - अगर ऐसा हुआ है तो मेरा द्विश्वास है कि आने वाली पीढ़ी उसे और द्रढ़ता के साथ पूरा करेंगी.
PAHLI BAR AYI AUR BANDH GAI BHAAVON KI GAHRAI ME AAP VAKAI BAHUT GAHRI BAATEIN KAH DETI HAIN , BADHAI
दिल को छू गयी आपकी रचना !!
बहुत तरल..दिल में उतरने के लिए लेकिन भीतर पहुँच इतनी कठोर..झंकझोरती है आपकी रचना..याद आता है वो अधूरा मकान!!!
बहुत सुन्दर रचना
देख कर कोई अधूरा मकान
उम्र के आखिरी पड़ाव में
एक स्त्री के आँचल में
एक बेबस आदमी का
बच्चे की तरह फफकना याद आता है ..
दिल को छू गयी आपकी रचना ....... सच में बहुत दर्द होता है जब किसी चीज़ की चाह में इंसान बेबस हो जाता है ........
कितने ही मकान यूँ ही अधूरे पड़े हैं...
रहने वाले इसमें अपने आप से लड़े हैं...
समय हांथो सा ना जाने कौन खींच ले जाता है...
पर हर मकान यूँ ही अधुरा रह जाता है...
बहुत सुंदर लिखा है...
ऑंखें नम हैं...
मीत
sach bahut kuch zindagi mein adhura rah jata hai.........na jaan ekitni atript ichchayein hoti hain aur insaan hamesha waqt ki saleeb par latka uske hathon majboor hota sirf badhta chala jata hai apni ichchon ko man ke kisi kone mein saheje huye ki shayad kabhi to to waqt wo samay dega jab hum unhein poora kar payenge imandari se ............aur tab bhi kuch makaan adhure hi rahte hain ya rah jate hain waqt ke hathon majbor hokar.
ek bahut hi sashakt rachna zindagi ki sachchaiyon ko ukerti huyi.
आज के समय में ईमानदारी और उससे उत्पन्न विवशता बहुत कष्ट दायक है ! बहुत सुंदर रचना ! बधाई स्वीकारें !
ati sawedanshil... kuchh kahne ko mere paas to shabd nahi hai...
ये कविता कह गयी वो हर बात जो अनकही रह जाती है एक इमानदार, कर्तव्यनिष्ठ, मध्यमवर्गीय व्यक्ति को जीवन में पाने को...और सहसा उन्हें कहना पड़ता है अलविदा.....आभार ...
आपके ब्लॉग पर पहली बार आई हूँ.....बहुत संवेदनशील रचना....बधाई
सवाल भीतर तक चुभ जाता है ...........
कोई मकान अधूरा क्यों रह जाता है ?
सशक्त अभिव्यक्ति !
''कोई मकान अधूरा क्यों रह जाता है '' कितना बड़ा सवाल है !!! विसंगतियों की पूरी पराकाष्ठा .
विषय ही इतना अनूठा है कि सनसनी पैदा हो जाती है. जायज़ अतृप्त इच्छाओं को आधार बनाकर आपने जितनी ख़ूबसूरती से यह रचना बुनी है, उसकी प्रशंसा के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास. बहुत-बहुत बधाई.
विषय ही इतना अनूठा है कि सनसनी पैदा हो जाती है. जायज़ अतृप्त इच्छाओं को आधार बनाकर आपने जितनी ख़ूबसूरती से यह रचना बुनी है, उसकी प्रशंसा के लिए शब्द नहीं हैं मेरे पास. बहुत-बहुत बधाई.
"कोई मकान अधूरा क्यों रह जाता है "
अत्यंत मार्मिक विषय है.
एक ईमानदार आदमी
अधूरा मकान
अधूरी दास्तां
चेहरे उदास
.... बस यही फलसफा है हमारे युग का।
बहरहाल कविता बहुत अच्छी लगी
बिल्कुल भोगे हुए यर्थाथ की तरह।
आपको और आपके परिवार को मकर संक्रांति की शुभकामनायें!
बहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने! दिल को छू गयी हर एक पंक्तियाँ!
देख कर कोई अधूरा मकान
उम्र के आखिरी पड़ाव में
एक स्त्री के आँचल में
एक बेबस आदमी का
बच्चे की तरह फफकना याद आता है ...
बहुत ही सुंदर संध्या जी दर्द पूरी तरह उभर के कचोटता है दिल को ।
प्रिय संध्या जी,
कविता की जैसी गहरी समझ और जीवन को देखने की जैसी दृष्टि आपके पास है उसके अनुपात में आपकी यह कविता /ध्यान रखिएगा रचना नहीं कह रहा इसे/ इतनी कसी हुई नहीं है ..जितना इसे होना चाहिए था ..और कोई होता तो मुझे यह बात नहीं कहनी थी ..लेकिन आपकी कलम जो "बाज़ार" जैसी कविता लिख सकती है उससे हमारी ..कम से कम मेरी अपेक्षाएं कुछ अधिक हैं ..
यह कविता माध्यम वर्ग के दर्द को बखूबी अभिव्यक्त करती है. जैसे उनके ख्वाब अधूरे रह जाते हैं वैसे ही मकान भी अधूरा रह जाता है.
ek madhyam vargiya naukripesha insan ki bebasta ko bade hi marmik dhang se vyakt kiya hai.sadhuvad
यह पेंटिंग भी क्या आपने बनाई ?
आपकी कवितायें यत्र-तत्र पढता रहा हूँ.आप इस संसार में भी बखूबी दख़ल बनाए हैं , सुखद लगा!
कई चीज़ें बस पढता ही गया.ये पंक्ति तो विचलित करती है, लेकिन ताप पूरी कविता में है.
अकेले और थके हुए आदमी की पदचाप
सुनाई देती है सपने में
छोटी सी लगती ये कविता अपने अर्थ-विस्तार में बहुत बड़ी है:
यह
तुम्हारे लिये है
पर
तुम्हारा नहीं है !
अफ़सोस कि मुझे आप के ब्लॉग तक आने में विलम्ब क्यों कर हुआ.
एक अकेले और थके हुए आदमी की पदचाप
सुनाई देती है सपने में
कोई मकान अधूरा क्यों रह जाता है!!
behad khoobsurat aapki sabhi rachna ki tarah ,gantanra divas ki badhai aapko .
मर्म स्पर्शी लिखा है...बेहद भावुक कर देने वाला और दिल के करीब...अधूरापन इमानदारी के यथार्थ कि देन है यह इमानदारी और सचाई का हिस्सा है...समझौतों के साथ इमानदारी नहीं रहती है यह तो अपने आप में उपलब्धि है जो कई मकानों से बढ़कर है.
सन्ध्या जी,
बहुत ही संवेदनात्मक और मर्मिस्पर्शी कविता है आपकी---एक नि्म्नमध्यवर्गीय परिवार की विवशताओं को समेटे हुये---
पूनम
अतीत में आधी-आधी रात को जग कर
कुछ हिसाब-किताब करते
कुछ लिखते
एक ईमानदार आदमी का चेहरा सन्नाटे में
पीछा करता है
Aapne sanjeeda bana diya!
Gantantr diwas kee anek shubhkamnayen!
ससाधनों के अभाव में ही तो कोई मकान अधूरा रह जाता होगा.
थके हुए आदमी के बीच मकान के अधूरेपन का सन्दर्भ.
बहुत सुन्दर
गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें.......
आओ
अपनी सम्वेदनाओं को
कर्म में ढालें
ताकि
रह न जाए कोई मकान अधूरा.
क्या कहूं? सबने इतना कुछ कह दिया? देर से आने के लिये माफ़ी ही मांग लेती हूं.
सुन्दर पोस्ट
बहुत बहुत आभार
dil ko chhune wali rachna..shubhkamnayen
अतीत में आधी-आधी रात को जग कर
कुछ हिसाब-किताब करते
कुछ लिखते
एक ईमानदार आदमी का चेहरा सन्नाटे में
पीछा करता है
निम्न मध्यमवर्गीय परिवार की सम्वेदना की बेहतरीन अभिव्यक्ति ......
jitni bariki aur sanvedanshilta se aap vastuon ko dekhti hain wah kabiletarif hai.aur kya kahun
...sundar rachnaa....prasanshaneey !!!
संवेदनायें अगर शब्दों मे उतरती हैं
तो भाव खुद संवेदना बन जाते हैं
मन की संवेदना मन से कही गयी
बेहतरीन
मन को छू गये कविता के भाव। आभार।
--------
घूँघट में रहने वाली इतिहास बनाने निकली हैं।
खाने पीने में लोग इतने पीछे हैं, पता नहीं था।
...आधी-आधी रात को जग कर
कुछ हिसाब-किताब करते
कुछ लिखते
एक ईमानदार आदमी का चेहरा
बहुत अच्छी कविता!
दर्द भी है सच्चाई भी
या फिर बस
यह दर्द ही सच्चाई है
sandhya ji, sadhuwad aap ko, aap ki sunder rachnao ke liye.. kya kahu ese zayda.. aasman aankho se ooncha ho nahi sakta.. samunder man se zayda gahra ho nahi sakta..aap ki kalam pathako ko bandhe bina rah nahi sakti.. .
sunil gajjani
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V.P.MISHRA
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तीसरी कविता पढ़ रहा हूँ ! बढ़िया लिखती हैं आप!
bahut hi badyia...
बहुत ही सुन्दर रचना है .... पढ़कर बहुत अच्छा लगा ...!
main paahli baaar aaya...jaane kis bhavna me likha gaya ho, par rooh tak ris gaya har shabd.
Samvedna ki tah tak ko chhone ka shukriya
bahot sunder.
बहुत दिनों बाद एक सार्थक और संवेदनशील रचना पढने को मिली है |
शब्दचित्र आंखों में अभी तक घूम रहे हैं -
एक स्त्री के आंचल में
एक बेबस आदमी का फफकना याद आता है ...
खूबसूरत....
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