ये सुनसान फैली सड़क है लैम्प पोस्ट की रौशनी में चमचमाते भवन हैं एक के बाद एक सब में मरे पड़े हैं आदमी
ये पूरा इलाका एक मुर्दा-घर है इस मुर्दा-घर में मैं अकेली खड़ी सन्नाटे के बीच तलाश रही हूं कब से एक अदद आदमी!
हां , मुझे नींद में चलने की आदत है! ....................................................... चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार .....................................................
एक शून्य सा फैला है कुछ मटमैला.... कुछ धूसर ....टील्हे खाई पत्थर अटके पानी और कटरंगनी की झाड़ियों के बीच देसी दारु की गंध में लिपटा उस कच्चे रास्ते पर ...
उस पार बस्ती है मगर वह एक द्वीप है कच्चे रास्तों से घिरा
पहाड़ टूटते हैं और हाईवे पर बिछते हैं कच्चे रास्तों से कच्चे माल गुजरते हैं
फसल पकती है फल पकते हैं आदमी पकता है मगर ताज्जुब है... वह रास्ता नहीं पकता !!
पांच हजार साल पहले यहां क्या था?.... नहीं पता... लेकिन अभी एक समाज है ऊपर -नीचे दाँयें-बाँयें से एक-सा केंदुआ...चैकुंदा...बांदा...डकैता ...डुबाटोला...मुरीडीह...मातुडीह... सरीखा कुछ नाम हो सकता है उसका
वह देश-प्रेम के जज़्बे में कभी नहीं डूबा मातृभूमि के लिये शीश झुकाना उसके मन के किसी धरातल पर नहीं अपना देश क्या है .....उसके अवचेतन में भी नहीं
यह दुनिया एक अजायबघर है उसके लिये तिलिस्मों से भरी
.......किन्तु हमारी भूख मिटाने और हमारा जीवन चमकाने में उसकी अहम भूमिका है
कोई पुरातत्ववेत्ता, खगोलशास्त्री या वास्तुविद् नहीं गुजरा कभी उस कच्चे रास्ते पर उसकी ऐतिहासिक - भौगोलिक स्थिति में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं
वहां कोई महाराणाप्रताप या वीरप्पन पैदा नहीं हुआ कोई जादूगर या मदारी तक नहीं उस भूखण्ड के नीचे कितना सोना... कितना हीरा... दबा है किसी को नहीं मालूम
हो सकता है...किसी दिन... या रात ... कोई सुषुप्त ज्वालामुखी भड़क उठे और एकाएक सबका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर ले करवट बदलता... पेट के बल रेंगता ... घुटनों पर उठता वह कच्चा रास्ता ...
(उन बस्तियों को देख कर जो विकास की लम्बी छलांग की डेड लाइन हैं और जिनके मृत सेल में स्लेट-पेंसिल, पानी- बिजली -अस्पताल और सड़क नहीं।) ............................................................... चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार .....................................................................
प्रिय मित्रो , आपने शिकायत की है कि मैंने आपको मैथिलीशरण गुप्त सम्मान के बारे में जानकारी नहीं दी। इसके लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। दरअसल मैंने सोचा कि समाचार पत्रों के माध्यम से तो इसकी जानकारी आप सबों को हो ही जायेगी। खैर विलम्ब के लिये क्षमा याचना सहित सहर्ष सूचित कर रही हूँ कि दि0, 03 अगस्त, 09 को राष्ट्रकवि मैथिलीशरणगुप्त की जन्म तिथि के पावन अवसर पर हिन्दी भवन, नई दिल्ली में मेरी पुस्तक ,कविता संग्रह, "बना लिया मैंने भी घोंसला"(राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली) को राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त विशिष्ट सम्मान-09 प्रदान किया गया । उक्त पुस्तक का चयन पिछले पाँच वर्षों में प्रकाशित 100 काव्यकृतियों में से किया गया। सभी पाठकों एवं शुभेच्छुओं के प्रति आभार व्यक्त करते हुए इस पुस्तक की शीर्षक कविता आप के समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ -
बना लिया मैंने भी घोंसला
घंटों एक ही जगह पर बैठी मैं एक पेड़ देखा करती
बड़ी पत्तियाँ...छोटी पत्तियाँ... फल-फूल और घोंसले .... मंद-मंद मुस्काता पेड़ खिलखिला कर हँसतीं पत्तियाँ... सब मुझसे बातें करते!!
कभी नहीं खोती भीड़ में मैं खो जाती थी अक्सर इन पेडों के बीच!
साँझ को वृक्षों के फेरे लगाती चिड़ियों की झुण्डों में अक्सर शामिल होती मैं भी!
...और एक रोज़ जब मन अटक नहीं पाया कहीं किसी शहर में तो बना लिया मैंने भी एक घोंसला उसी पेड़ पर!
वे सूर्य को दिये जाने वाले अर्ध्य का पवित्र जल थे बरगद की छाँह थे मंदिर की सीढ़ियाँ थे
खेत में लगातार जुते हुए बैल थे
संघर्ष के बीच जिजीविषा को बचाने की इच्छाओं की प्रतिमूर्ति थे वे राष्ट्र के निर्माण की कथा थे
वे जनपद में पहली लालटेन लेकर आये थे यह सिर्फ किवदंती ही नहीं है
जब कई स्त्रियों को रखने की प्रवृति आदमी की दबंगता में शुमार की जाती थी उन्होंने बच्चों के लिये स्कूल गांव के लिये अस्पताल
भूमिहीनों के लिये ज़मीन बेरोजगारों के लिये चरखे करघे की पहल की
उनके पास पराघीन देश की कई कटु और मधुर स्मृतियाँ थीं होश सम्भालने से लेकर
अपने जीवन का एक तिहाई देश को स्वाधीन करने में होम कर दिया यह आजीवन संघर्ष का एक महत्वपूर्ण पहलू था जिसे उन्होंने कभी बातचीत में तकिया कलाम नहीं बनाया
अलबत्ता अंतिम दौर की लड़ाई में
जर्जर - रूग्णकाय शून्य में कुछ इस तरह देखा करते जैसे कोई अपने बनाये हुए घरोंदे को टूटते हुए देख रहा हो
यह सच है कि पेंशन के लिये वे कभी परेशान नहीं दिखे पर आजादी के बाद की पीढ़ी ने उनके लिये चिन्ता प्रकट की उन्हें उनकी भौतिक समृद्वि पर असंतोष था उनकी नज़र में वे अव्यावहारिक थे
उनके पास जीवन के अंतिम क्षणों में कोई सुन्दर मकान नहीं था आखि़री सांस तक की लड़ाई के बाद भी कोई बैंक बैलेंस नहीं था
जो उनके लिये चिन्तित दिखे वे वक्त का मिज़ाज समझने वाले सफल नज़रिया रखने वाले दुनियादार लोग थे उनके सधे अनुभव में उन्हें समय के साथ चलना था
वे फक्कड़ थे ! कबीर थे !
15 अगस्त 1947 को पहली बार
दस घंटे सोये थे.
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पूज्य पिता श्रीश्रीकृष्णप्रसादकी स्मृति में ...................................................................
झारखण्ड राज्य, संथाल परगना के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी . कार्य-क्षेत्र - मुख्यतः झारखण्ड-बिहार, उत्तर प्रदेश .
महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं - प्रताप, वीरभारत, आज, अमृत प्रभात, गाधी संदेश, गाधी मार्ग, अम्बर इत्यादि से सम्बद्ध , सम्पादक -लेखक जिनका सम्पूर्ण जीवन निःस्वार्थ सेवा और त्याग में व्यतीत हुआ जिन्हें अपने विज्ञापन में कोई रुचि नहीं थी .