शनिवार, 12 दिसंबर 2009

बाज़ार

यह
तुम्हारे लिये है
पर
तुम्हारा नहीं है !


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बुधवार, 11 नवंबर 2009

लैम्प पोस्ट




ये सुनसान फैली सड़क है
लैम्प पोस्ट की रौशनी में
चमचमाते भवन हैं
एक के बाद एक

सब में मरे पड़े हैं आदमी

ये पूरा इलाका एक मुर्दा-घर है
इस मुर्दा-घर में मैं अकेली खड़ी
सन्नाटे के बीच
तलाश रही हूं कब से एक अदद आदमी!

हां , मुझे नींद में चलने की आदत है!

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चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2009

गाँधी



कितनी बरसातों के बाद भी
रेत पर
उसके पाँवों के निशान हैं!!

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चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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सोमवार, 7 सितंबर 2009

उस कच्चे रास्ते पर ...




एक शून्य सा फैला है
कुछ मटमैला.... कुछ धूसर
....
टील्हे खाई पत्थर
अटके पानी और
कटरंगनी की झाड़ियों के बीच
देसी दारु की गंध में लिपटा
उस कच्चे रास्ते पर ...

उस पार बस्ती है मगर
वह एक द्वीप है
कच्चे रास्तों से घिरा

पहाड़ टूटते हैं और हाईवे पर बिछते हैं
कच्चे रास्तों से कच्चे माल गुजरते हैं

फसल पकती है
फल पकते हैं
आदमी पकता है
मगर ताज्जुब है...
वह रास्ता नहीं पकता !!

पांच हजार साल पहले
यहां क्या था?.... नहीं पता...
लेकिन अभी एक समाज है
ऊपर -नीचे दाँयें-बाँयें से एक-सा
केंदुआ...चैकुंदा...बांदा...डकैता
...डुबाटोला...मुरीडीह...मातुडीह...

सरीखा कुछ नाम हो सकता है उसका

वह देश-प्रेम के जज़्बे में कभी नहीं डूबा
मातृभूमि के लिये शीश झुकाना
उसके मन के किसी धरातल पर नहीं
अपना देश क्या है .....उसके अवचेतन में भी नहीं

यह दुनिया एक अजायबघर है उसके लिये
तिलिस्मों से भरी

.......किन्तु हमारी भूख मिटाने और हमारा जीवन
चमकाने में उसकी अहम भूमिका है

कोई पुरातत्ववेत्ता, खगोलशास्त्री या वास्तुविद्
नहीं गुजरा कभी उस कच्चे रास्ते पर
उसकी ऐतिहासिक - भौगोलिक स्थिति में
किसी को कोई दिलचस्पी नहीं

वहां कोई महाराणाप्रताप या वीरप्पन पैदा नहीं हुआ
कोई जादूगर या मदारी तक नहीं
उस भूखण्ड के नीचे
कितना सोना... कितना हीरा... दबा है
किसी को नहीं मालूम

हो सकता है...किसी दिन... या रात ...
कोई सुषुप्त ज्वालामुखी भड़क उठे
और एकाएक सबका ध्यान
अपनी ओर आकर्षित कर ले
करवट बदलता... पेट के बल रेंगता
... घुटनों पर उठता
वह कच्चा रास्ता ...

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(उन बस्तियों को देख कर जो विकास की लम्बी छलांग की डेड लाइन हैं और जिनके मृत सेल में स्लेट-पेंसिल, पानी- बिजली -अस्पताल और सड़क नहीं।)
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चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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रविवार, 9 अगस्त 2009

मैथिलीशरण गुप्त सम्मान

प्रिय मित्रो , आपने शिकायत की है कि मैंने आपको मैथिलीशरण गुप्त सम्मान के बारे में जानकारी नहीं दी। इसके लिये मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। दरअसल मैंने सोचा कि समाचार पत्रों के माध्यम से तो इसकी जानकारी आप सबों को हो ही जायेगी। खैर विलम्ब के लिये क्षमा याचना सहित सहर्ष सूचित कर रही हूँ कि दि0, 03 अगस्त, 09 को राष्ट्रकवि मैथिलीशरणगुप्त की जन्म तिथि के पावन अवसर पर हिन्दी भवन, नई दिल्ली में मेरी पुस्तक ,कविता संग्रह, "बना लिया मैंने भी घोंसला"(राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली) को राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त विशिष्ट सम्मान-09 प्रदान किया गया । उक्त पुस्तक का चयन पिछले पाँच वर्षों में प्रकाशित 100 काव्यकृतियों में से किया गया। सभी पाठकों एवं शुभेच्छुओं के प्रति आभार व्यक्त करते हुए इस पुस्तक की शीर्षक कविता आप के समक्ष प्रस्तुत कर रही हूँ -


बना लिया मैंने भी घोंसला


घंटों एक ही जगह पर बैठी
मैं एक पेड़ देखा करती

बड़ी पत्तियाँ...छोटी पत्तियाँ...
फल-फूल और घोंसले ....

मंद-मंद मुस्काता पेड़
खिलखिला कर हँसतीं पत्तियाँ...
सब मुझसे बातें करते!!

कभी नहीं खोती भीड़ में मैं
खो जाती थी अक्सर इन पेडों के बीच!

साँझ को वृक्षों के फेरे लगाती
चिड़ियों की झुण्डों में अक्सर
शामिल होती मैं भी!

...और एक रोज़ जब
मन अटक नहीं पाया कहीं किसी शहर में
तो बना लिया मैंने भी एक घोंसला
उसी पेड़ पर!

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शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

तय तो यह था...




तय तो यह था कि
आदमी काम पर जाता
और लौट आता सकुशल

तय तो यह था कि
पिछवाड़े में इसी साल फलने लगता अमरूद

तय था कि इसी महीने आती
छोटी बहन की चिट्ठी गाँव से
और
इसी बरसात के पहले बन कर
तैयार हो जाता
गाँव की नदी पर पुल

अलीगढ़ के डॉक्टर बचा ही लेते
गाँव के किसुन चाचा की आँख- तय था

तय तो यह भी था कि
एक दिन सारे बच्चे जा सकेंगे स्कूल...

हमारी दुनिया में जो चीजें तय थीं
वे समय के दुःख में शामिल हो एक
अंतहीन...अतृप्त यात्राओं पर चली गयीं

लेकिन-
नहीं था तय ईश्वर और जाति को लेकर
मनुष्य के बीच युद्ध!

ज़मीन पर बैठते ही चिपक जायेंगे पर
और मारी जायेंगी हम हिंसक वक़्त के हाथों
चिड़ियों ने तो स्वप्न में भी
नहीं किया था तय!



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चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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शुक्रवार, 26 जून 2009

सुबह




सूर्य का गोला आसमान पे उजले रंग से लिखता है -
सुबह
और चमक उठती हैं इस धरती पर जल की तरंगें
जीवन के रंगों से भर कर

तरोताजा हो उठती है हवा किरणों से नहा-धोकर
हल-बैल लिये किसान उतर पड़ते हैं खेतों में
नई उमंग के साथ नई फसल बोने को

निकल पड़ती हैं चींटियां अपने बिलों से कतारबद्ध
अपने गंतव्य की ओर ....और
परिन्दे कभी नहीं ठहरते अपने घोंसलों में
सुबह होने के बाद

.......लेकिन मित्रो !
अफसोस! कि इधर बहुत दिनों से
सुबह नहीं हुई!

बेहद जरूरी है सुबह का होना
एक लम्बी काली रात के बाद

इन्तज़ार है धान को ओस का
और ओस को एक सुबह का.....!!


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चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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