सोमवार, 20 अप्रैल 2009

केटोली


त्रिकुटि पहाड़ की तराई में बसे उस गाँव को
प्रकृति ने अपने ढंग से सँवारा था और
लोगों ने कुछ अपने ही ढंग से


वहाँ खेत नदी झरने तालाब और वृक्षों के अलावे
लोगों की बसाई कुछ बस्तियाँ भी थीं
जहाँ कुछ मिली -जुली किस्मों के लोगों के अलावे
केवट कहलाये जाने वाले लोग बसते थे
-जिनकी कभी गरिमापूर्ण विरासत थी
जो अब भूगर्भ में समा चुकी थी


इनकी बस्ती में
जिसे वे खुद केटोली (केवट-टोली)
के नाम से पुकारते थे और दूसरे किस्म के लोग
उसे गंदी बस्ती के नाम से जानते थे
-झोपड़ियाँ थीं, घर नहीं
जो साफ-सफाई के बावजूद गंदी रहती थीं


इस गंदी बस्ती में रहनेवाले लोग बेशक गंदे थे!
इनका रहन-सहन गंदा था
इनकी शिक्षा शून्य और दीक्षा वश परम्परा से थी
भाषा के नाम पर इनके पास
निन्यानबे प्रतिशत गालियाँ ही थीं!


ये लोग अपने जीवन का मायने और मकसद
नहीं तलाशते थे
वे क्या हैं ?... और क्यों हैं?...
-ये नहीं जानते थे!


ये जीवन को कुत्ते की तरह दुत्कारते और
कबड्डी की तरह जीते लोग थे!


इनकी अपनी एक अलग दुनिया थी
जिसके सारे कायदे -कानून पेट से शुरू और
पेट ही में खत्म होते थे!


यहाँ खजखजाते हुए बच्चे़ थे और
टिमटिमाते हुए बूढ़े-

भूखे ,नंगे, कुपोषण और बीमारियों के बीच
बच्चे पलते और बूढ़े मर जाते


मर्द जाल बुनते ...मछलियाँ पकड़ते और
औरतें मुढ़ी भूंजतीं
मर्द की कमाई ताड़ी और जुए में जाती
औरत की कमाई से घर चलता


रोज शाम को मर्द ताड़ी के नशे में
झूमते हुए घर आते और
अजीबोग़रीब दृश्यों का सृजन करते!
कभी वे गुदड़ी में बेताज़ बादशाह होते...
कभी अमिताभ...गोविंदा...
कभी पत्नी और बच्चों को पीटते हुए दरिंदे
तो कभी अधिक पी लेने के कारण
रास्ते में पड़े लावारिस लाश की तरह होते!


गौरतलब है कि औरतें इस बस्ती में
गड्ढे के ठहरे हुए पानी में पड़ी
चाँद की परछाईं थीं


पहाड़ से लकड़ियाँ काट कर सर पे रखे
राजधानी एक्सप्रेस से अधिक तेजी से
भागती हुई आती ये औरतें...


धान उसनतीं....बीच सड़क पर बैठ कर सुखातीं...
कूटतीं -पीसतीं...बच्चे पालतीं
मर्दों के हाथों पिटतीं
और उनकी इच्छाओं पर बिछ-बिछ जातीं...
किन्तु सूरज की हर आहट पर चौंक-चौंक
उठतीं ये औरतें...!!


- अपने आप में निराली पर इकलौती नहीं
यह वही बस्ती है दोस्तो !
जहाँ सदियाँ कभी नहीं बदलतीं!!


.................................................................

(केटोली-झारखण्ड स्थित देवघर ज़िले में त्रिकुटि पहाड़
की तराई में बसे गाँव मोहनपुर की एक बस्ती)
................................................................
चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
....................................................................

रविवार, 29 मार्च 2009

क़ब्रगाह


कितने लोग दफ़न हुए इस ज़मीन में
कितने घर और कितने मुल्क....
तबसे ...जबसे यह ज़मीन बनी है!

....उनकी कब्रगाह पर ही तो बसी हुई हैं
सारी बस्तियाँ
हमारे घर....शहर....
दुकान...मकान...

उसी कब्रगाह पर खड़े हैं हम
एक और कब्रगाह बसाये हुए!!
................................................

चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
....................................................................

सोमवार, 9 मार्च 2009

इस सभ्यता के पास अनुकूल तर्क है!


यह बहुत चालाक सभ्यता है
यहाँ चिड़ियों को दाने डाले जाते हैं
और चिड़ियों को मारने के लिये बंदूकें भी बनती हैं

यहाँ बलत्कृत स्त्री
अदालत में पुनः एक बार कपड़े उतारती है

इस सभ्यता के पास
स्त्री को कोख में ही मार देने की पूरी गारंटी है


यहाँ पहली बरसात में
वर्षों की प्रतीक्षा से बनी गाँव की ओर
जाने वाली सड़क बह जाती है

सबसे बड़ी बात है...
इस सभ्यता के पास अनुकूल तर्क है!

................................................

चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
....................................................................

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

जंगल में होना चाहती हूँ!


जानती हूँ मैं जंगल में होने के ख़तरों के बारे में

बीहड़ों और हिंस्र पशुओं के बीच से गुजरने की
कल्पना मात्र भी
किस क़दर ख़ौफ़नाक़ है!!

और जंगल की धधकती आग!
किसे नहीं जलाकर राख कर देती वो तो!!

जंगल में होने का मतलब है
हर पल जान हथेली पर रखना!

.....मैं ख़तरे उठाना चाहती हूँ ...
....जंगल में होने के सारे ख़तरे क्योंकि
मुझे भरोसा है जंगल के न्याय पर पूरा का पूरा
और वहाँ भरोसों की हत्या नहीं होती

आखि़रकार जंगल मेरा अपना है
सबसे पुराना साथी !


................................................

चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
....................................................................

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

चित्र


मैं चित्र बनाती हूँ
जल की सतह पर
देखो -
कितने सुन्दर हैं!!

जितनी यह काली और चपटी नाक वाली
कुबड़ी लड़की
जितने कुम्हार के ये टूटे हुए बर्तन
जितनी समन्दर की दहकती हुई आग
भूकम्प के बीच डोलती धरती
और
उलटी हुई नाव
देखो...!

................................................

चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
....................................................................

गुरुवार, 15 जनवरी 2009

अधूरा मकान



उस रास्ते से गुज़रते हुए
अक्सर दिखाई दे जाता था
वर्षों से अधूरा बना पड़ा वह मकान

वह अधूरा था
और बिरादरी से अलग कर दिये आदमी
की तरह दिखता था

उस पर छत नहीं डाली गयी थी
कई बरसातों के ज़ख़्म उस पर दिखते थे
वह हारे हुए जुआड़ी की तरह खड़ा था
उसमें एक टूटे हुए आदमी की परछाँई थी

हर अधूरे बने मकान में एक अधूरी कथा की
गूँज होती है
कोई घर यूँ ही नहीं छूट जाता अधूरा
कोई ज़मीन यूँ ही नहीं रह जाती बाँझ

उस अधूरे बने पड़े मकान में
एक सपने के पूरा होते -होते
उसके धूल में मिल जाने की आह थी
अभाव का रुदन था
उसके खालीपन में एक चूके हुए आदमी की पीड़ा का
मर्सिया था

एक ऐसी ज़मीन जिसे आँगन बनना था
जिसमें धूप आनी थी
जिसकी चारदीवारी के भीतर नम हो आये
कपड़ों को सूखना था
सूर्य को अर्ध्य देती स्त्री की उपस्थिति से
गौरवान्वित होना था

अधूरे मकान का एहसास मुझे सपने में भी
डरा देता है
उसे अनदेखा करने की कोशिश में भर कर
उस रास्ते से गुज़रती हूँ
पर जानती हूँ
अधूरा मकान सिर्फ़ अधूरा ही नहीं होता
अधूरे मकान में कई मनुष्यों के सपनों
और छोटी-छोटी ख्वाहिशों के बिखरने का
इतिहास दफ़न होता है ।

.........................................................
चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
.......................................................................

गुरुवार, 1 जनवरी 2009

प्रार्थना

मेघ से मेरी प्रार्थना है कि
अबकी बारिश के बाद
बरसे आग
गीली लकड़ियाँ सुलगे और मैं सेंकूँ
अपने चूल्हे पर गर्मागर्म फूली हुई
गोल-गोल रोटियाँ!


आग से मेरी प्रार्थना है कि
जले काई सीलन और बदबूदार वस्तुएँ
उपजे ढेर सारी किसिम-किसिम की सब्ज़ियाँ...
गेहूँ...और...धान...
भरे हर रसोई


लोक से है प्रार्थना मेरी कि
उसकी बिन ब्याही बेटी की बच्ची को
माँ का नाम मिले
हो उसका भी अपना एक घर-आँगन
उसकी देहरी पर भी थोड़ी-सी धूप
खिले!




..................................................................

आने वाला हर पल गुज़रे लम्हों से बेहतर हो
नव
वर्ष मंगलमय हो!
..............................................................................
...............................................................................................