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रविवार, 29 मार्च 2009
क़ब्रगाह
कितने लोग दफ़न हुए इस ज़मीन में
कितने घर और कितने मुल्क....
तबसे ...जबसे यह ज़मीन बनी है!
....उनकी कब्रगाह पर ही तो बसी हुई हैं
सारी बस्तियाँ
हमारे घर....शहर....
दुकान...मकान...
उसी कब्रगाह पर खड़े हैं हम
एक और कब्रगाह बसाये हुए!!
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चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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47 टिप्पणियां:
सच कहूं तो
मन भी कब्रगाह ही है
विचारों की
आते कम हैं बाहर
अंदर दफन होते ज्यादा
मन का यही है कायदा
।
मन के विचार घर को
कोई और नाम दे दें क्या ?
एक और अच्छी कविता पढ़ने को मिली। धन्यवाद।
kavta padhi.
ummed hai aur achchhi rachnaayen is blog par padhne milengi.
-vijay
बहुत ही सुंदर,
आप क धन्यवाद
thodi jaldi nahi kar di aapne!
असली बस्ती तो वही है जहाँ अंतिम में जाकर सब बस जाते हैं... ये दुनिया तो ही असल में कब्रगाह है... जहाँ हर रोज कितने ही सपने सीने में दफ़न हो जाते हैं...
सुंदर रचना...
मीत
बहुत खूब, सत्य् को कितनी आसानी से कह दिया, सच में यह पृथ्वी एक कब्र गाह ही है, हम सब एक कब्र पर ही चल रहे हैं
आपने जिंदगी को बहुत करीब से देखा है बहुत ही सार्थक लिखा है.
ham jisko panaahgaah kahte he asal me vo kbragaah hi to he..
shbdo ke jariye jis andaaz me aapne apni baat kahi vah behtreen he..
hamara man, vichaar, soch sabkuchh ek drashti me kbragaah ke aaspaas mndrata rahta he..kuchh bhi naya nahi he ynha tak ki jivan bhi naya nahi he..ek ke baad ek jivan ki kabra par khade ham naye naye jivan ko jeete rahte he..
Sandhya ji ,
apkee kavitayen itne kam shabdon kee hone ke bavjood bahut kuchh sochne ko vivash kar detee hain....bahut sarthak kavita.
Poonam
सचमुच हम जिस धरती पर खड़े हैं वह एक नये कब्रगाह में तब्दील हो रही है। संवेदनायुक्त कविता।
बहुत सुंदर । घुटन में डीता हुआ इन्सान जिंदा लाश ही तो है ।
सच में बहुत बेहतरीन। हिला सा दिया।
इस जमीन की अहमियत आप जानती है लेकिन इसे कम लोग जानते है । यह जमीन सारी दुनिया का बोझ उठाए हुए है । औऱ यह भी सही है कि इस जमीन पर लोग बसे है जहां कब्रगाह है । बहुत अच्छी लेखनी शुक्रिया
Kitni gehri baat kahi aapne.
उसी कब्रगाह पर खड़े हैं हम
एक और कब्रगाह बसाये हुए!!
Sach upar bhi kabr hai aur niche bhi.
बस्तुतः, अंततः इस शरीर का होना तो मिट्टी ही है, चाहे जला कर, चाहे दफना कर.
इस मिट्टी को अपनी नज़रों से कोई भी नाम दिया जा सकता है...........
मसलन......
भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका. अमरीका आदि, आदि...,
दिल्ली. कलकत्ता, मुंबई, जयपुर, वगैरह, वगैरह......,
दिया,दियाली,मटका, सुराही, खिलौने, कीचड़, इत्यादि...........
स्वर्ग, नरक जैसा भी............
कब्रगाह, शमशान भी तो.................
फिर....
जहाँ पूरी जिन्दगी दो-चार करनी हो,
तीन-तेरह करानी हो,
दो का चार करने की फिराक में रहना हो,
दो-चार घड़ी भी सकून न मिलना हो,
सठियाना हो,
अंततः एक दिन नौ-दो-ग्यारह होना हो,
उसे अपनी श्रद्धा अनुसार कर्म भूमि, कुकर्म भूमि, सुकर्म भूमि ही कहें तो क्या बुरा है.................
चन्द्र मोहन गुप्त
... बेहद प्रभावशाली रचना, सत्य का प्रस्तुतिकरण रचना के माध्यम से अत्यंत प्रसंशनीय है।
Gambhir rachna.Zinda lash ke saman hi to ban gaye hai hum.
कितने लोग दफ़न हुए इस ज़मीन में
कितने घर और कितने मुल्क....
तबसे ...जबसे यह ज़मीन बनी है!
सुंदर,,,
बच्चन की एक पंक्ति याद आ गयी,,,,,
कितनी इच्छाएं हर जाने वाला छोड़ यहाँ जाता है,,
कितने अरमानो की बनकर , कब्र कड़ी है मधुशाला
खूब,,,,,,,,,,,
sandhya ji आज आपकी यह कविता पढ़ी,सवेदनाओं से भरी हुई,ओर एक अकाट्य सत्य को प्रस्तुत करती हुई ,आपने सही कहा
....उनकी कब्रगाह पर ही तो बसी हुई हैं
सारी बस्तियाँ
हमारे घर....शहर....
दुकान...मकान...
sundar abhivyakti
जिस धरती पर खड़े हैं वह एक नये कब्रगाह में तब्दील हो रही है....plz save it..defenately we can do it...
उसी कब्रगाह पर खड़े हैं हम
एक और कब्रगाह बसाये हुए!!
गहरे भाव लिए हुई रचना.
'उसी कब्रगाह पर खड़े हैं हम
एक और कब्रगाह बसाये हुए!!'
- इस सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद.
Aise to main jalidi tippani nahin karta hoon par is kavita ko padhkar raha nahin gaya.Jitna likhun kam hai.Apna aur parichay den.
उसी कब्रगाह पर खड़े हैं हम
एक और कब्रगाह बसाये हुए!!
Achhche Bhav
.............
"उसी कब्रगाह पर खड़े हैं हम" क्या बात कही है. सुन्दर रचना. आभार.
कितने लोग दफ़न हुए इस ज़मीन में
कितने घर और कितने मुल्क....
तबसे ...जबसे यह ज़मीन बनी है!
वाह बहुत अच्छा लिखती हैं आप। बधाई स्वीकारें।
आपका यह दार्शनिक अन्दाज़ बहुत ही उम्दा है.
बहुत ख़ूब.
कब्रगाह के ऊपर बसी हुई कब्रगाह .
अगर सब यही सोचेँ तो बहुत सारी
खराबी इस दुनिया से हट जायेगी
और यह दुनिया रहने के लिये और अच्छी हो सकती है
एक और कब्रगाह बसाये हुए!! पढ़ा, बधाई! समीक्षक ओम निश्चल ने आपकी पुस्तक " बना लिया मैं ने भी घोसला" की तरीफ़ की है…॥
एक और कब्रगाह बसाये हुए!! पढ़ा, बधाई! समीक्षक ओम निश्चल ने आपकी पुस्तक " बना लिया मैं ने भी घोसला" की तरीफ़ की है…॥
उसी कब्रगाह पर खड़े हैं हम
एक और कब्रगाह बसाये हुए!!
बहुत बढ़िया पंक्तियाँ ..संध्या जी .आपकी कवितायेँ छोटी लेकिन बहुत कुछ कहने वाली हैं .
हेमंत कुमार
अपने कम शब्दों में बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्त किया है खुद को.
bahut khoob!
kai patra patrikaon me aapki rachnayen pehle padh chuka hoon.aap blog par bhi upasthith hain yah jankar achcha laga.
Yashwant.
सचमुच यही लगता है कि हम अपनी कब्र भी खुद ही खोद रहे हैं। कब्रगाह बसाना आदमी की नियति है।...फिर प्रकृति भी साथ क्यों न दे।
saarthak भावो को उकेरती सुन्दर कविता
मेरी ब्लॉग जगत से लम्बी अनुपस्तिथि के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ
Aapkee rachnape milee tippaniyan misaal hain ki, aapki kavita ek bemisal peshkash hai..isse aage kuchh kahun, itnee qabiliyat nahee rakhtee....
Apni sabhyatape likhi rachna bhee ek sangeen saty hai...jo baar, baar ujagar hota hai...aur ham use nazarandaaz karneke taurtareeqe eejaad karte rehte hain...
sahi likha hai aapne...... mera maanana hai ki har kisi ko sochne par majboor karegi.
कब्र में जीना ,कब्र में मरना ,
कब्र में रहकर कब्र ही होना
सच कहते हो अब इन्सान कहाँ
भूत हुए सब ,अब विश्रांति कहाँ
लिखते रहिये ,शुभकामनायें
बहुत ख़ूब!
'सब कहाँ कुछ लाला ओ गुल में नुमायां हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हां हो गईं।'
ग़ालिब
सशक्त भावाभिव्यक्ति...
बहुत अच्छा लगा आपकी कविताएं पढ़ कर।
विचारों की
आते कम हैं बाहर
अंदर दफन होते ज्यादा
मन का यही है कायदा
Man ki such me yahi kayda hai...nice poem..
Regards
हर पेस्ट करने के बाद यह जरूर सोचता हू कि संध्या जी ने नयी कोई रचना लिखी है या नही । आपकी रचना का इंतजार हमे हमेशा रहता है । बस यही इंतजार आज भी कर रहा हू । शुक्रिया
lajawab sunder savedansheel rachna hai...
bahut khoob.............
bahut hi gehrai wala vichaar hai....
umda rachna
हमेशा की तरह आपकी रचना जानदार और शानदार है।
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