शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

तय तो यह था...




तय तो यह था कि
आदमी काम पर जाता
और लौट आता सकुशल

तय तो यह था कि
पिछवाड़े में इसी साल फलने लगता अमरूद

तय था कि इसी महीने आती
छोटी बहन की चिट्ठी गाँव से
और
इसी बरसात के पहले बन कर
तैयार हो जाता
गाँव की नदी पर पुल

अलीगढ़ के डॉक्टर बचा ही लेते
गाँव के किसुन चाचा की आँख- तय था

तय तो यह भी था कि
एक दिन सारे बच्चे जा सकेंगे स्कूल...

हमारी दुनिया में जो चीजें तय थीं
वे समय के दुःख में शामिल हो एक
अंतहीन...अतृप्त यात्राओं पर चली गयीं

लेकिन-
नहीं था तय ईश्वर और जाति को लेकर
मनुष्य के बीच युद्ध!

ज़मीन पर बैठते ही चिपक जायेंगे पर
और मारी जायेंगी हम हिंसक वक़्त के हाथों
चिड़ियों ने तो स्वप्न में भी
नहीं किया था तय!



................................................

चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
....................................................................

शुक्रवार, 26 जून 2009

सुबह




सूर्य का गोला आसमान पे उजले रंग से लिखता है -
सुबह
और चमक उठती हैं इस धरती पर जल की तरंगें
जीवन के रंगों से भर कर

तरोताजा हो उठती है हवा किरणों से नहा-धोकर
हल-बैल लिये किसान उतर पड़ते हैं खेतों में
नई उमंग के साथ नई फसल बोने को

निकल पड़ती हैं चींटियां अपने बिलों से कतारबद्ध
अपने गंतव्य की ओर ....और
परिन्दे कभी नहीं ठहरते अपने घोंसलों में
सुबह होने के बाद

.......लेकिन मित्रो !
अफसोस! कि इधर बहुत दिनों से
सुबह नहीं हुई!

बेहद जरूरी है सुबह का होना
एक लम्बी काली रात के बाद

इन्तज़ार है धान को ओस का
और ओस को एक सुबह का.....!!


................................................

चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
....................................................................

शनिवार, 30 मई 2009

वे फक्कड थे ! .... कबीर थे ! ....

वे नहीं रहे
तब हमने उनके बारे में
जाना

वे सूर्य को दिये जाने वाले अर्ध्य का
पवित्र जल थे
बरगद की छाँह थे
मंदिर की सीढ़ियाँ थे

खेत में लगातार जुते हुए बैल थे
संघर्ष के बीच
जिजीविषा को बचाने की इच्छाओं की

प्रतिमूर्ति थे

वे राष्ट्र के निर्माण की कथा थे


वे जनपद में पहली लालटेन लेकर आये थे
यह सिर्फ किवदंती ही नहीं है

जब कई स्त्रियों को रखने की प्रवृति

आदमी की दबंगता में शुमार की जाती थी

उन्होंने बच्चों के लिये स्कूल
गांव के लिये अस्पताल
भूमिहीनों के लिये ज़मीन
बेरोजगारों के लिये चरखे करघे की पहल की

उनके पास पराघीन देश की कई कटु
और मधुर स्मृतियाँ थीं

होश सम्भालने से लेकर
अपने जीवन का एक तिहाई
देश को स्वाधीन करने में होम कर दिया
यह आजीवन संघर्ष का एक महत्वपूर्ण पहलू था
जिसे उन्होंने कभी बातचीत में

तकिया कलाम नहीं बनाया


अलबत्ता अंतिम दौर की लड़ाई में
जर्जर - रूग्णकाय
शून्य में कुछ इस तरह देखा करते
जैसे कोई अपने बनाये हुए घरोंदे को
टूटते हुए देख रहा हो

यह सच है
कि पेंशन के लिये वे कभी परेशान नहीं दिखे
पर आजादी के बाद की पीढ़ी ने उनके लिये
चिन्ता प्रकट की
उन्हें उनकी भौतिक समृद्वि पर

असंतोष था
उनकी नज़र में वे अव्यावहारिक थे

उनके पास जीवन के अंतिम क्षणों में

कोई सुन्दर मकान नहीं था

आखि़री सांस तक की लड़ाई के बाद भी

कोई बैंक बैलेंस नहीं था


जो उनके लिये चिन्तित दिखे

वे वक्त का मिज़ाज समझने वाले

सफल नज़रिया रखने वाले

दुनियादार लोग थे

उनके सधे अनुभव में उन्हें

समय के साथ चलना था

वे फक्कड़ थे ! कबीर थे !
15 अगस्त 1947 को पहली बार
दस घंटे सोये थे.

.............

पूज्य पिता श्री श्रीकृष्ण प्रसाद
की स्मृति में
...................................................................


झारखण्ड राज्य, संथाल परगना के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी . कार्य-क्षेत्र - मुख्यतः झारखण्ड-बिहार, उत्तर प्रदेश .
महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं - प्रताप, वीरभारत, आज, अमृत प्रभात,
गाधी संदेश, गाधी मार्ग, अम्बर इत्यादि से सम्बद्ध , सम्पादक -लेखक जिनका सम्पूर्ण जीवन निःस्वार्थ सेवा और त्याग में व्यतीत हुआ जिन्हें अपने विज्ञापन में कोई रुचि नहीं थी .

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

केटोली


त्रिकुटि पहाड़ की तराई में बसे उस गाँव को
प्रकृति ने अपने ढंग से सँवारा था और
लोगों ने कुछ अपने ही ढंग से


वहाँ खेत नदी झरने तालाब और वृक्षों के अलावे
लोगों की बसाई कुछ बस्तियाँ भी थीं
जहाँ कुछ मिली -जुली किस्मों के लोगों के अलावे
केवट कहलाये जाने वाले लोग बसते थे
-जिनकी कभी गरिमापूर्ण विरासत थी
जो अब भूगर्भ में समा चुकी थी


इनकी बस्ती में
जिसे वे खुद केटोली (केवट-टोली)
के नाम से पुकारते थे और दूसरे किस्म के लोग
उसे गंदी बस्ती के नाम से जानते थे
-झोपड़ियाँ थीं, घर नहीं
जो साफ-सफाई के बावजूद गंदी रहती थीं


इस गंदी बस्ती में रहनेवाले लोग बेशक गंदे थे!
इनका रहन-सहन गंदा था
इनकी शिक्षा शून्य और दीक्षा वश परम्परा से थी
भाषा के नाम पर इनके पास
निन्यानबे प्रतिशत गालियाँ ही थीं!


ये लोग अपने जीवन का मायने और मकसद
नहीं तलाशते थे
वे क्या हैं ?... और क्यों हैं?...
-ये नहीं जानते थे!


ये जीवन को कुत्ते की तरह दुत्कारते और
कबड्डी की तरह जीते लोग थे!


इनकी अपनी एक अलग दुनिया थी
जिसके सारे कायदे -कानून पेट से शुरू और
पेट ही में खत्म होते थे!


यहाँ खजखजाते हुए बच्चे़ थे और
टिमटिमाते हुए बूढ़े-

भूखे ,नंगे, कुपोषण और बीमारियों के बीच
बच्चे पलते और बूढ़े मर जाते


मर्द जाल बुनते ...मछलियाँ पकड़ते और
औरतें मुढ़ी भूंजतीं
मर्द की कमाई ताड़ी और जुए में जाती
औरत की कमाई से घर चलता


रोज शाम को मर्द ताड़ी के नशे में
झूमते हुए घर आते और
अजीबोग़रीब दृश्यों का सृजन करते!
कभी वे गुदड़ी में बेताज़ बादशाह होते...
कभी अमिताभ...गोविंदा...
कभी पत्नी और बच्चों को पीटते हुए दरिंदे
तो कभी अधिक पी लेने के कारण
रास्ते में पड़े लावारिस लाश की तरह होते!


गौरतलब है कि औरतें इस बस्ती में
गड्ढे के ठहरे हुए पानी में पड़ी
चाँद की परछाईं थीं


पहाड़ से लकड़ियाँ काट कर सर पे रखे
राजधानी एक्सप्रेस से अधिक तेजी से
भागती हुई आती ये औरतें...


धान उसनतीं....बीच सड़क पर बैठ कर सुखातीं...
कूटतीं -पीसतीं...बच्चे पालतीं
मर्दों के हाथों पिटतीं
और उनकी इच्छाओं पर बिछ-बिछ जातीं...
किन्तु सूरज की हर आहट पर चौंक-चौंक
उठतीं ये औरतें...!!


- अपने आप में निराली पर इकलौती नहीं
यह वही बस्ती है दोस्तो !
जहाँ सदियाँ कभी नहीं बदलतीं!!


.................................................................

(केटोली-झारखण्ड स्थित देवघर ज़िले में त्रिकुटि पहाड़
की तराई में बसे गाँव मोहनपुर की एक बस्ती)
................................................................
चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
....................................................................

रविवार, 29 मार्च 2009

क़ब्रगाह


कितने लोग दफ़न हुए इस ज़मीन में
कितने घर और कितने मुल्क....
तबसे ...जबसे यह ज़मीन बनी है!

....उनकी कब्रगाह पर ही तो बसी हुई हैं
सारी बस्तियाँ
हमारे घर....शहर....
दुकान...मकान...

उसी कब्रगाह पर खड़े हैं हम
एक और कब्रगाह बसाये हुए!!
................................................

चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
....................................................................

सोमवार, 9 मार्च 2009

इस सभ्यता के पास अनुकूल तर्क है!


यह बहुत चालाक सभ्यता है
यहाँ चिड़ियों को दाने डाले जाते हैं
और चिड़ियों को मारने के लिये बंदूकें भी बनती हैं

यहाँ बलत्कृत स्त्री
अदालत में पुनः एक बार कपड़े उतारती है

इस सभ्यता के पास
स्त्री को कोख में ही मार देने की पूरी गारंटी है


यहाँ पहली बरसात में
वर्षों की प्रतीक्षा से बनी गाँव की ओर
जाने वाली सड़क बह जाती है

सबसे बड़ी बात है...
इस सभ्यता के पास अनुकूल तर्क है!

................................................

चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
....................................................................

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

जंगल में होना चाहती हूँ!


जानती हूँ मैं जंगल में होने के ख़तरों के बारे में

बीहड़ों और हिंस्र पशुओं के बीच से गुजरने की
कल्पना मात्र भी
किस क़दर ख़ौफ़नाक़ है!!

और जंगल की धधकती आग!
किसे नहीं जलाकर राख कर देती वो तो!!

जंगल में होने का मतलब है
हर पल जान हथेली पर रखना!

.....मैं ख़तरे उठाना चाहती हूँ ...
....जंगल में होने के सारे ख़तरे क्योंकि
मुझे भरोसा है जंगल के न्याय पर पूरा का पूरा
और वहाँ भरोसों की हत्या नहीं होती

आखि़रकार जंगल मेरा अपना है
सबसे पुराना साथी !


................................................

चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
....................................................................