गुरुवार, 15 जनवरी 2009

अधूरा मकान



उस रास्ते से गुज़रते हुए
अक्सर दिखाई दे जाता था
वर्षों से अधूरा बना पड़ा वह मकान

वह अधूरा था
और बिरादरी से अलग कर दिये आदमी
की तरह दिखता था

उस पर छत नहीं डाली गयी थी
कई बरसातों के ज़ख़्म उस पर दिखते थे
वह हारे हुए जुआड़ी की तरह खड़ा था
उसमें एक टूटे हुए आदमी की परछाँई थी

हर अधूरे बने मकान में एक अधूरी कथा की
गूँज होती है
कोई घर यूँ ही नहीं छूट जाता अधूरा
कोई ज़मीन यूँ ही नहीं रह जाती बाँझ

उस अधूरे बने पड़े मकान में
एक सपने के पूरा होते -होते
उसके धूल में मिल जाने की आह थी
अभाव का रुदन था
उसके खालीपन में एक चूके हुए आदमी की पीड़ा का
मर्सिया था

एक ऐसी ज़मीन जिसे आँगन बनना था
जिसमें धूप आनी थी
जिसकी चारदीवारी के भीतर नम हो आये
कपड़ों को सूखना था
सूर्य को अर्ध्य देती स्त्री की उपस्थिति से
गौरवान्वित होना था

अधूरे मकान का एहसास मुझे सपने में भी
डरा देता है
उसे अनदेखा करने की कोशिश में भर कर
उस रास्ते से गुज़रती हूँ
पर जानती हूँ
अधूरा मकान सिर्फ़ अधूरा ही नहीं होता
अधूरे मकान में कई मनुष्यों के सपनों
और छोटी-छोटी ख्वाहिशों के बिखरने का
इतिहास दफ़न होता है ।

.........................................................
चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
.......................................................................

गुरुवार, 1 जनवरी 2009

प्रार्थना

मेघ से मेरी प्रार्थना है कि
अबकी बारिश के बाद
बरसे आग
गीली लकड़ियाँ सुलगे और मैं सेंकूँ
अपने चूल्हे पर गर्मागर्म फूली हुई
गोल-गोल रोटियाँ!


आग से मेरी प्रार्थना है कि
जले काई सीलन और बदबूदार वस्तुएँ
उपजे ढेर सारी किसिम-किसिम की सब्ज़ियाँ...
गेहूँ...और...धान...
भरे हर रसोई


लोक से है प्रार्थना मेरी कि
उसकी बिन ब्याही बेटी की बच्ची को
माँ का नाम मिले
हो उसका भी अपना एक घर-आँगन
उसकी देहरी पर भी थोड़ी-सी धूप
खिले!




..................................................................

आने वाला हर पल गुज़रे लम्हों से बेहतर हो
नव
वर्ष मंगलमय हो!
..............................................................................
...............................................................................................

शुक्रवार, 12 दिसंबर 2008

दोराहे पर लड़कियाँ


दोराहे पर खड़ी लड़कियाँ
गिन -गिन कर कदम रखती हैं
कभी आगे-पीछे
कभी पीछे-आगे
कभी ये पुल से गुजरती हैं
कभी नदी में उतरने की हिमाकत करती हैं

ये अत्यन्त फुर्तीली और चौकन्नी होती हैं
किन्तु इन्हें दृष्टि-दोष रहता है
इन्हें अक्सर दूर और पास की चीजें नहीं दिखाई पड़तीं

ये विस्थापन के बीच
स्थापन से गुज़रती हैं
जीवन के स्वाद में कहीं ज्यादा नमक
कहीं ज्यादा मिर्च
... कहीं दोनो से खाली

दोराहे पर खड़ी लड़िकयाँ गणितज्ञ होती हैं
लेकिन कोई सवाल हल नहीं कर पातीं!
.................................................
चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
......................................................................................................

शनिवार, 29 नवंबर 2008

गोश्त बस


वह काला चील्ह...!!

क्या तुमने देखा नहीं उसे...
जाना नहीं...??


है बस काला...
सर से पाँव तक...
फैलाये अपने बीभत्स पंख काले
शून्य में मंडराता रहता है
इधर-उधर
गोश्त की आस में
आँखों को मटमटाता
अवसर की ताक में....


चाहिये उसे गोश्त बस
....लबालब खून से भरा
नर हो या मादा
शिशु हो नन्हा-सा
या कोई पालतु पशु ही


काला हो या उजला
हो लाल या मटमैला
उसे चाहिये गोश्त बस!

...................................................................

शनिवार, 8 नवंबर 2008

कुछ भी नहीं बदला

सन्दूक से पुराने ख़त निकालती हूँ
कुछ भी नहीं बदला...
छुअन
एहसास
संवेदना!

पच्चीस वर्षों के पुराने अतीत में
सिर्फ़
उन उँगलियों का साथ
छूट गया है...

.................................................................................

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2008

राज ठाकरे के लिये

कुम्हार ने मिट्टी के ढेलों को पहले तोड़ा
फिर उन्हें बारीक किया और पानी डाल कर भिगोया
मिट्टी को पैरों से खूब रौंदने के बाद
उसे हाथों से कमाया

मिट्टी घुल मिल कर एक हो गयी
बिलकुल गूँथे हुए आटे की तरह

कमाई हुई मिट्टी को कुम्हार ने चाक पर रखा
एक डंडे के सहारे चाक को गति दी
इतनी गति की वह हवा से बातें करने लगा

चाक पर रखी मिट्टी को कुम्हार के कुशल हाथ
आकृतियां देने लगे
मिटटी सृजन के उपक्रम में भिन्न भिन्न
आकृतियों में ढलती गयी
पास ही रेत का ढेर पड़ा था...

कुम्हार नहीं बनाता रेत से बर्तन
रेत के कण आपस में कभी
पैवस्त नहीं हो सकते !

......................................................................................................


शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2008

वह संसार नहीं मिलेगा

और एक रोज़ कोई भी सामान
अपनी जगह पर नहीं मिलेगा

एक रोज़ जब लौटोगे घर
और....वह संसार नही मिलेगा
वह मिटटी का चूल्हा
और लीपा हुआ आंगन नहीं होगा

लौटोगे .....और
गौशाले में एक दुकान खुलने को तैयार मिलेगी

घर की सबसे बूढ़ी स्त्री के लिये
पिछवाड़े का सीलन और अंधेरे में डूबा कोई कमरा होगा

जिस किस्सागो मजदूर ने अपनी गृहस्थी छोड़ कर
तुम्हारे यहां अपनी ज़िन्दगी गुज़ार दी
उसे देर रात तक बकबक बंद करने
और जल्दी सो जाने की हिदायत दी जायेगी

देखना-
विचार और संवेदना पर नये कपड़े होंगे!

लौट कर आओगे
और अपनों के बीच अपने कपड़ो
और जूतो से पहचाने जाओगे...!
वहां वह संसार नहीं मिलेगा !!

........................................................