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जानती हूँ मैं जंगल में होने के ख़तरों के बारे में बीहड़ों और हिंस्र पशुओं के बीच से गुजरने की कल्पना मात्र भी किस क़दर ख़ौफ़नाक़ है!! और जंगल की धधकती आग! किसे नहीं जलाकर राख कर देती वो तो!! जंगल में होने का मतलब है हर पल जान हथेली पर रखना! .....मैं ख़तरे उठाना चाहती हूँ ... ....जंगल में होने के सारे ख़तरे क्योंकि मुझे भरोसा है जंगल के न्याय पर पूरा का पूरा और वहाँ भरोसों की हत्या नहीं होती आखि़रकार जंगल मेरा अपना है सबसे पुराना साथी ! ................................................चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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मैं चित्र बनाती हूँ जल की सतह पर देखो - कितने सुन्दर हैं!! जितनी यह काली और चपटी नाक वाली कुबड़ी लड़की जितने कुम्हार के ये टूटे हुए बर्तन जितनी समन्दर की दहकती हुई आग भूकम्प के बीच डोलती धरती और उलटी हुई नाव देखो...!................................................चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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उस रास्ते से गुज़रते हुए अक्सर दिखाई दे जाता था वर्षों से अधूरा बना पड़ा वह मकान वह अधूरा था और बिरादरी से अलग कर दिये आदमी की तरह दिखता था उस पर छत नहीं डाली गयी थी कई बरसातों के ज़ख़्म उस पर दिखते थे वह हारे हुए जुआड़ी की तरह खड़ा था उसमें एक टूटे हुए आदमी की परछाँई थी हर अधूरे बने मकान में एक अधूरी कथा की गूँज होती है कोई घर यूँ ही नहीं छूट जाता अधूरा कोई ज़मीन यूँ ही नहीं रह जाती बाँझ उस अधूरे बने पड़े मकान में एक सपने के पूरा होते -होते उसके धूल में मिल जाने की आह थी अभाव का रुदन था उसके खालीपन में एक चूके हुए आदमी की पीड़ा का मर्सिया था
एक ऐसी ज़मीन जिसे आँगन बनना था जिसमें धूप आनी थी जिसकी चारदीवारी के भीतर नम हो आये कपड़ों को सूखना था सूर्य को अर्ध्य देती स्त्री की उपस्थिति से
गौरवान्वित होना था अधूरे मकान का एहसास मुझे सपने में भी डरा देता है उसे अनदेखा करने की कोशिश में भर कर
उस रास्ते से गुज़रती हूँ पर जानती हूँ अधूरा मकान सिर्फ़ अधूरा ही नहीं होता
अधूरे मकान में कई मनुष्यों के सपनों
और छोटी-छोटी ख्वाहिशों के बिखरने का इतिहास दफ़न होता है । .........................................................चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार
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मेघ से मेरी प्रार्थना है कि अबकी बारिश के बाद बरसे आग गीली लकड़ियाँ सुलगे और मैं सेंकूँ अपने चूल्हे पर गर्मागर्म फूली हुई गोल-गोल रोटियाँ! आग से मेरी प्रार्थना है कि जले काई सीलन और बदबूदार वस्तुएँ उपजे ढेर सारी किसिम-किसिम की सब्ज़ियाँ... गेहूँ...और...धान... भरे हर रसोई लोक से है प्रार्थना मेरी कि उसकी बिन ब्याही बेटी की बच्ची को माँ का नाम मिले हो उसका भी अपना एक घर-आँगन उसकी देहरी पर भी थोड़ी-सी धूप खिले!..................................................................
आने वाला हर पल गुज़रे लम्हों से बेहतर हो
नव वर्ष मंगलमय हो!.............................................................................................................................................................................
दोराहे पर खड़ी लड़कियाँ गिन -गिन कर कदम रखती हैं कभी आगे-पीछे कभी पीछे-आगे कभी ये पुल से गुजरती हैं कभी नदी में उतरने की हिमाकत करती हैं ये अत्यन्त फुर्तीली और चौकन्नी होती हैं किन्तु इन्हें दृष्टि-दोष रहता है इन्हें अक्सर दूर और पास की चीजें नहीं दिखाई पड़तीं
ये विस्थापन के बीच
स्थापन से गुज़रती हैं जीवन के स्वाद में कहीं ज्यादा नमक कहीं ज्यादा मिर्च ... कहीं दोनो से खाली दोराहे पर खड़ी लड़िकयाँ गणितज्ञ होती हैं लेकिन कोई सवाल हल नहीं कर पातीं!
................................................. चित्र गुगल सर्च इंजन से साभार......................................................................................................
वह काला चील्ह...!! क्या तुमने देखा नहीं उसे... जाना नहीं...?? है बस काला... सर से पाँव तक... फैलाये अपने बीभत्स पंख काले शून्य में मंडराता रहता है इधर-उधर गोश्त की आस में आँखों को मटमटाता अवसर की ताक में.... चाहिये उसे गोश्त बस ....लबालब खून से भरा नर हो या मादा शिशु हो नन्हा-सा या कोई पालतु पशु ही काला हो या उजला हो लाल या मटमैला उसे चाहिये गोश्त बस! ...................................................................
सन्दूक से पुराने ख़त निकालती हूँ कुछ भी नहीं बदला... छुअन एहसास संवेदना! पच्चीस वर्षों के पुराने अतीत में सिर्फ़ उन उँगलियों का साथ छूट गया है... .................................................................................