और एक रोज़ कोई भी सामान
अपनी जगह पर नहीं मिलेगा
एक रोज़ जब लौटोगे घर
और....वह संसार नही मिलेगा
वह मिटटी का चूल्हा
और लीपा हुआ आंगन नहीं होगा
लौटोगे .....और
गौशाले में एक दुकान खुलने को तैयार मिलेगी
घर की सबसे बूढ़ी स्त्री के लिये
पिछवाड़े का सीलन और अंधेरे में डूबा कोई कमरा होगा
जिस किस्सागो मजदूर ने अपनी गृहस्थी छोड़ कर
तुम्हारे यहां अपनी ज़िन्दगी गुज़ार दी
उसे देर रात तक बकबक बंद करने
और जल्दी सो जाने की हिदायत दी जायेगी
देखना-
विचार और संवेदना पर नये कपड़े होंगे!
लौट कर आओगे
और अपनों के बीच अपने कपड़ो
और जूतो से पहचाने जाओगे...!
वहां वह संसार नहीं मिलेगा !!
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शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2008
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12 टिप्पणियां:
जीवन की सच्चाई दर्शाती हुई पंक्तियां/बहुत सुंदर
दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें/
संध्या जी, झकझोर गयी आपकी कविता, शाश्वत यथार्थ । बहुत ही सुन्दर, आभार ।
आपको दीवावली की हार्दिक शुभकामनायें ।
कितनी सरलता से चूल्हे ,लिपे हुए आँगन -गौशाला की बात कहदी /तीनों बातों से आज की जनरेशन अपरिचित है =जो परिचित हैं उन्हें पुरानी यादे बहुत आई होंगी
wahooo it was nice poetry....keep it up.....
achchha prayas kiya apane sandhya ji. apaki kavitayen mene kai ptrikaon me padhi hai. kuchh post uname se bhi dalen. achchha lagega. mere blog par bhi kuchh kavitayen padhane ko ayen.thanks.
लौट कर आओगे
और अपनों के बीच अपने कपड़ो
और जूतो से पहचाने जाओगे...!
वहां वह संसार नहीं मिलेगा !!
Beautiful! Beautiful!
Sandip Sharan,Ranchi
'vah sansar' ek nai tazgi se bhari kavita hai, alag tarah ki samvedna ke sath. Kissago mazdoor ka prayog bha gaya.: VIVEK GUPTA
बाजारवाद के प्रभाव को अच्छी तरह अभिव्यक्त कर पायी है रचना
bahut khub. aap sunder likhti hain.
हर बार की तरह आपकी लेखनी ने जादू बिखेरा है
पुन: एक जनवादी कविता, बाजारवाद और विकासवाद की मिथ्या अवधारणा या कहें, कनफोड़ जूतमपैजार जनतन्त्र के तथाकथित उन्नति के विरोध को स्वर देती हुयी एक सशक्त रचना। लोग निरंतर अपनी ज़मीन से छूटते हुये विस्थापन और बेरोजगार की मार सहते हुये न सिर्फ़ अपनी जगह-ज़मीन से हाथ धो रहे हैं बल्कि अपनी अस्मिता,अपने संस्कार, अपने पुरखों की धरोहर और अपने जीवन-मूल्यों से भी लगातार जुदा होते जा रहे हैं,यही इस युग की त्रासदी है ,देखें इनकी कविता में -
“घर की सबसे बूढ़ी स्त्री के लिये
पिछवाड़े का सीलन और अंधेरे में डूबा कोई कमरा”
-यह कविता उस संजोये सतीत्व के रक्षार्थ हमारे हृ-तंत्र को झंकृत कर वहाँ एक ऐसा भाव भरने का उपक्रम करती है जिससे एकात्म होकर हम अपनी खोयी हुयी विरासत को वापस पाने को बेचैन हो सकते हैं।
[इस अर्थ में यह मानववादी कविता है। इसी तरह की मेरी एक कविता ‘अपनी ज़मीन से छूटते हुये लोग’ ‘वागर्थ’ के नई २००७ या २००८ में आयी थी। यह साहित्यशिल्पी बेव पत्रिका पर भी है जिसका लिंक नीचे दे रहा हूँ-
http://www.sahityashilpi.com/2008/12/blog-post_07.html ]
मुझे लगता है कि संध्या गुप्ता का कवि हमेशा अपनी खोयी संस्कृति और उन मूल्यों को बचाने के लिये प्रयत्नशील-विकल है जो निरंतर ह्रासमान मनुष्यता की संस्कृति के पुनस्सृजन में सहायक हो सकते हैं। मेरी बधाई लें इस कविता के लिये।
-सुशील कुमार। सम्प्रति चाईबासा से।
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