कुम्हार ने मिट्टी के ढेलों को पहले तोड़ा
फिर उन्हें बारीक किया और पानी डाल कर भिगोया
मिट्टी को पैरों से खूब रौंदने के बाद
उसे हाथों से कमाया
मिट्टी घुल मिल कर एक हो गयी
बिलकुल गूँथे हुए आटे की तरह
कमाई हुई मिट्टी को कुम्हार ने चाक पर रखा
एक डंडे के सहारे चाक को गति दी
इतनी गति की वह हवा से बातें करने लगा
चाक पर रखी मिट्टी को कुम्हार के कुशल हाथ
आकृतियां देने लगे
मिटटी सृजन के उपक्रम में भिन्न भिन्न
आकृतियों में ढलती गयी
पास ही रेत का ढेर पड़ा था...
कुम्हार नहीं बनाता रेत से बर्तन
रेत के कण आपस में कभी
पैवस्त नहीं हो सकते !
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शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008
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33 टिप्पणियां:
सातों जनम लिए मैंने
सातों जनम लिए
पहले जन्म की मिट्टी हत्थे चढ़ी कुम्हार के
उसने घड़ा बना दिया बैठी में दिल हार के
पल भर में टूट गयी,मेरी किस्मत ही फूट गयी
फिर न चढ़ी कुम्हार से लाखों जतन किए...
मैंने पहले कविता पढ़ी और अपनी टिप्पणी कर दी। यह प्रेरणा की पराकाष्ठा है, पता नहीं कहां, कौन से शब्द किस सेंस में झंकृत करने लगें। बाद में शीर्षक पढ़ा, आखिरी लाइन में राज ठाकरे उपस्थित नजर आए।....खैर, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि एक अच्छी कविता को एक बुरे आदमी पर न्यौछावर होने से बचाया जाए, भले ही वह बुरा आदमी नदी सी बह रही उस कविता को हरी झंडी दिखा रहा हो।
सुंदर कविता
कुम्हार नहीं बनाता रेत से बर्तन
रेत के कण आपस में कभी
पैवस्त नहीं हो सकते !
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सीधी,सरल लेकिन गहरी बात !
बधाई आपको
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डॉ.चन्द्रकुमार जैन
इतनी असरदार रचना के लिए आप को बधाई...सीधे साधे शब्दों के सहारे आप अपनी बात दिल तक बखूबी पहुँचा गयीं...लाजवाब.
नीरज
कुम्हार नहीं बनाता रेत से बर्तन.
देशवासिओं एकता के लिए मिट्टी बनिए. कुम्हार अच्छा 'बर्तन' बनाएगा.
swagatam
कुम्हार नहीं बनाता रेत से बर्तन
रेत के कण आपस में कभी
पैवस्त नहीं हो सकते !
sahee hai
इस लिंक पर भी सादर आमंत्रित हैं
टिप्पणी के लिए आभार केशव जी के बारे में लिंक पर पोस्ट
है http://sanskaardhani.blogspot.com/
बहुत उम्दा!! लिखते रहें, शुभकामनाऐं.
मैं इतना ही कहूंगा कि आपने जो बातें कही, उसे पवन जी ने पूरी कर दी है। असल में मुझे आपकी कविता बहुत अच्छी लगी थी, तो मैं कमेंट लिखने के लिए आगे बढ़ा, लेकिन कमेंट बॉक्स में पवन निशांत जी की चार लाइनें पढ़ीं, तो पहले उन्हें बधाई देने का मन किया। बुरा मत मानियेगा, लेकिन पवन जी की तारीफ आपसे पहले कर रहा हूं, क्योंकि उन्होंने बहुत करीने से कविता का अंत किया है और आपकी कविता तो है ही काबिले तारीफ...
बहुत सुंदर रचना.
आपकी रचना बहुत पसंद आई...प्रभावित किया
..बधाई
कुम्हार नहीं बनाता रेत से बर्तन
रेत के कण आपस में कभी
पैवस्त नहीं हो सकते !
सृजन के क्षण रेत के लिए कभी
व्यस्त नही हो सकते
बहुत सुंदर । राज ठाकरे ही नही जितने अलगाव वादीं हैं सब को जान लेना चाहिये और समझ लेना चाहिये इसका मर्म।
jis prakar gili mitti se koi bhee aakriti banai ja sakti hai, waise hee bachapan bhee gile mitti ke saman hota hai, usko jo chahe bana do. raj thakare nahi bana nahi bana
narayan narayan kalyan ho
अच्छे शब्द विन्यास, और सरल शब्दों में धारदार कविता, बधाई ..... लिखते रहें।
काश, इतनी अच्छी बात राज के समझ में आती।
सुन्दर कविता के लिए बधाई।
kavita aap ki gahri soch darsha rahi hai--badhayee ek sundar kavita ke liye
आचार्य संजीव वर्मा "सलिल"
संपादक दिव्य नर्मदा
email: salil.sanjiv@gmail.com
blog: sanjivsalil.blogspot.com
नव गीत
समय - समय की बात
कभी तीर पर, कभी धार में,
समय - समय की बात...
बिन मजबूरी करें अहर्निश,
चुप रहकर बेगार,
सूर्य-चन्द्र जैसा जन-गण तो-
क्यों सुधरे सरकार?
यहाँ पूर्णिमा-वहन अमावस
दोनों की है मात...
गति, यति, पिंगल, लय बिन कविता
बिना गंध का फूल.
नियम व्याकरण के पंखुडियां,
सिर्फ़ शब्द हैं शूल.
सत-शिव-सुंदर मूल्य समाहित
रचना नव्य प्रभात...
जनमत भुला मांगते जन-मत,
नेता बने भिखारी.
रिश्वत लेते रहे नगद पर-
वादे करें उधारी.
नेता, अफसर, व्यापारी ने
नष्ट किए ज़ज्बात...
नहीं सभ्यता और संस्कृति
के प्रति किंचित प्यार.
देश सनातन हाय! बन गया
अब विशाल बाज़ार.
आग लगाये जो उसको ही
पाल रहे हैं तात...
कोई किसी का मीत नहीं,
यह कैसी बेढब रीत?
कागा के स्वर में गाती क्यों
कोयल बेसुर गीत?
महाराष्ट्र का राज राष्ट्र से-
'सलिल' करे क्यों घात?...
Bahut achi rachna ke liye dher sari badhaiyan..
सरल लेकिन गहरी बात !
बधाई...
मैंने आपकी कविता पढ़ी और दंग रह गया! "माटी कहे कुम्हार से तू क्या रोंदे मोय...." के बाद मैंने पहली बार वैसी ही कोई दूसरी रचना पढ़ी। राज तो रेत का एक कण है। आपने तो पूरी मानवजाति को एक संदेश दिया है। धन्यवाद!
sachin saurabh
sachinindian2007@yahoo.com
Wah..wa
sunder kavita ke liye badhai swikaren
hoslaafjai ke liye shukriya.....mere blog par aapka hamesha swagat hai,......
पूरे राज ठाकरे प्रकरण पर किसी रचनाकार की सबसे सशक्त अभिव्यक्ति .
kavita loud ho gai hai. raj thakre ko sambodhit karane se kavita ki vyapakata par asar pada hai.phir bhi jivan ka ek achchha sabak jise hum to yad rakhenge par raj thakare yad nahi rakhega. badhai.
I wanted to comment on this poem but when I was doing it i read the comments of Nishant bhai and Bahadur Patel ji .I think that they both are right to an extent when they say that by addressing Raj Thackeray the poetess has somewhat restricted the appeal of this poem. But that has to do with the title of the poem and not the poem itself. Secondly I think that
Patel ji is totally off the mark when he says that the poem is loud.There can't be anything farther from the truth.Infact I think that it is one of the subtlest poems that I have ever read on a a sensitive topic.
आपने यथार्थ को उकेरा हैं अपनी कलम से बढिया अद्भुत
बहुत लंबे अरसे तक ब्लॉग जगत से गायब रहने के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ अब पुन: अपनी कलम के साथ हाज़िर हूँ |
Achchi rachna.Kai magazines me aapki kavitaon ko pehle padh chuka hun.
sundar si baat ki sahaj dhang se prastut kar ise aur bhi asardaar bana diya hai aapne
Gaurav ji ki bat se sahmat hoon.
फिर एक कविता,बिम्ब का बखूबी उपयोग। रेत हैं राज ठाकरे जैसे लोग जिनसे जनहित और देश-दुनिया की भलाई के निमित्त सन्निवेश की आशा करना व्यर्थ है। कुम्हार हैं वे जन जो निरंतर सृजन और प्रगति के पथ प्रशस्त करने में लवलीन रहे हैं और मिट्टी-सम लोच है उस जनता की प्रकृति में जिसमें नवता,नमता और शील का गुणधर्म धारण है।खैर.. मैं राज ठाकरे की राजनीति का विश्लेषण करना इस मंच पर उचित नहीं समझता गोया कि यह सृजन का मंच है।
संध्या गुप्ता की कवि-प्रकृति सतत गतिशील है। उन्हें कविता की रूढ़ि पसंद नहीं,इसलिये कविता में वह सदैव नूतनता की पक्षधर रही हैं जो उनकी कविता को कविता की सीमा से आगे ले जाने को उद्धत रहती है। यह सृजनधर्मी कवि का विलक्षण गुण है और काव्य-सौंदर्य का बहुमूल्य तत्व। ऐसे कवि बाद की पीढ़ी के लिये भी बहुत प्रासंगिक होते हैं। हिंदी कविता की परम्परा पर अगर हम गौर करें तो इसके विकास-क्रम में रूढ़ प्रतिमानों को तोड़कर उसके आगे निकल जाने का सबसे ज्यादा प्रयोग महाकवि निराला ने किया। इसलिये वे पंत और प्रसाद से आगे निकल गये और कविता के मुक्ति के उन्नायक कवि कहे जाते हैं। कारण कि, कविता में प्रयोगधर्मिता और प्रचलित मानदंडों का विखंडन युगीन जड़ता को तोड़ता है और वह रचना को सार्वदेशिक और सार्वकालिक बनाता है।
हम संध्या की कविताओं में काव्य के इस अभिलक्षणा का प्रसन्न विकास पाते हैं जो उन्हें अन्य समकालीन स्त्री युवा कवयित्रियों से अलग ,स्वतन्त्र विवेचना की माँग करता है। अगर इनकी यह प्रयोगधर्मिता, इन्द्रिय-बोध और बिम्बों के रचाव आगे भी बनी रही और कविता के रूपवादी रूझानों का व्यामोह इन्हें अपनी घेरे में नहीं ले पाया तो कहा जा सकता है कि त्रिलोचन-निराला परम्परा की अग्रधाविका के रूप में वह हिंदी काव्य जगत में अपनी स्थान बना पायेंगी। पर यह मार्ग संघर्ष और अंतर्द्वंद्व का मार्ग जहाँ धीरज और समय के ताप से विगलित न होकर उसको सहने की जरूरत होती है। मेरी शुभकामनायें।- सुशील कुमार।( sk.dumka@gmail.com)
http://sushilkumar.net
http://diary.sushilkumar.net
[ संध्या जी,एक नाराजगी आप से है कि आप मेरे ब्लॉग पर आकर कुछ अपने विचार नहीं दे रहीं। इतनी भी व्यस्तता की क्या बात है!]
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